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नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधन पाता है और सम्बोधन पाने के बाद उसके अन्तःकरण से क्रूरता का विषाक्त-भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नयसार के भव में मुनि को आहारदान और उनके पवित्र उपदेश से उसके जीवन में परिवर्तन आता है। कहा जाता है कि महावीर के जीवन में यहीं से प्रबल परिवर्तन प्रारम्भ होता है और यहीं वह रौद्ररस के स्थान पर शान्तरस को ग्रहण कर लेता है। पुनः वह साधना से भटक भी जाता है। किन्तु अन्त में पुनः प्रबुद्ध होकर अपना चरम विकास कर लेता है।
पूर्वभव की परम्परा पर आज की प्रगतिशील पीढ़ी को भले ही विश्वास न हो पर यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं कि हमारी जन्म-परम्परा हमारी कर्म-परम्परा पर आधारित है। महावीर की पूर्वभव-परम्परा भी उनके भावों और कर्मों के अनुसार निश्चित हुई है। इस निश्चितीकरण में जैनधर्म सर्वज्ञ तीर्थङ्कर के सर्वतोमुखी ज्ञान को आधार स्वरूप मानता है। महावीर ने तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति तक अनन्त भव धारण किये होंगे पर उन भवों में से प्रमुख भवों का ही उल्लेख दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में किया गया है। माता-पिता
छठी शताब्दी ई०पू० में वैशाली वज्जी गणतन्त्र की राजधानी थी। उसके शासक ज्ञातृकुलीय लिच्छवि क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे। राजा सिद्धार्थ के अपर नाम श्रेयांस और यशस्वी भी मिलते हैं। वे इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री थे। पापनासुत्त और ठाणांगसुत्त के अनुसार यह इक्ष्वाकुवंशी आर्यों के छः कुलों के अन्तर्गत निर्दिष्ट हैउग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञातृ (लिच्छवि और वैशालिक) एवं कौरव। ज्ञातृकुल के आधार पर ही पालि-प्राकृत साहित्य में महावीर को 'निगण्ठ नातपुत्त' कहा गया है।
राजा सिद्धार्थ का पाणिग्रहण वैशाली के लिच्छवि प्रधान राजा चेटक की पुत्री (दिगम्बर परम्परानुसार) अथवा बहिन (श्वेताम्बर परम्परानुसार) वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला प्रियकारिणी के साथ हुआ था। त्रिशला को विदेहदिन्ना अथवा विदेहदत्ता भी कहा गया है। दोनों का दाम्पत्य जीवन अन्यन्त सुखद एवं आध्यात्मिक था। लक्ष्मी और सौन्दर्य के साथ सरस्वती का सुन्दर समागम था। गर्भापहरण
__ वैशाली के ब्राह्मण कुण्डग्राम में ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा रहती थी। उसने स्वप्न में देखा कि उसके गर्भ में कोई महान् व्यक्तित्व-तीर्थङ्कर आया हुआ है। इन्द्र ने यह बात अवधिज्ञान से जान ली और चूंकि तीर्थङ्कर का जन्म क्षत्रियकुल में ही होता है इसलिए उसने हरिणेगमेषी नामक देव को उस गर्भ का अपहरण करके उसे क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में नियोजित करने की आज्ञा दे दी। प्रथम ८२ दिन
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