Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 36
________________ २४ म्यूजियम, मुम्बई में रखी एक जैन मूर्ति भी लगभग इसी समय की है। इससे इतना तो सिद्ध है ही कि जैन मूर्ति परम्परा लगभग चतुर्थ शती ई०पू० से तो है ही। इतना ही नहीं, जैन मन्दिरों का निर्माण भी तीसरी दूसरी सदी ई०पू० से होने लगा था। मथुरा इस निर्मिति का प्रमुख केन्द्र था। यहां ऋषभ, सम्भव, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रत, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर की मूर्तियां विशेष लोकप्रिय रही हैं। कुषाणकाल के बाद गुप्तकाल में यहां ऋषभ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को 'पंचेन्द्र' की संज्ञा दी गई है। वैभारगिरि, सोणभद्र गुफा, चौसा, उदयगिरि (विदिशा), सिर पहाड़ी आदि स्थानों पर पृथक-पृथक् रूप से भी जैन मूर्तियां मिली हैं। इनके निर्माण में भी एक विकास रेखा खींची जा सकती है। पर लगता है, ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर की मूर्तियां विशेष प्रचलित रही हैं। फिर भी यह कहना तथ्यसंगत ही है कि कुषाणकाल में चौबीस तीर्थङ्करों की परम्परा कला क्षेत्र में प्रस्थापित हो चुकी थी, भले ही उनके लाञ्छनों में स्थैर्य आगमोत्तरकाल में आया हो । इस परम्परा की तुलना वैदिक और बौद्ध परम्परा के साथ भी कर लेनी चाहिए जिससे उसकी तथ्यात्मकता को आंका जा सके। इन दोनों परम्पराओं में अवतारों और बुद्धों की परम्परा प्रसिद्ध ही है । सम्भव है, जैन परम्परा से ये परम्परायें प्रभावित रही हैं। सन्दर्भ १. समवायांग, २४, १४७, कल्पसूत्र, तीर्थङ्कर वर्णन आवश्यकनिर्युक्ति, ३६९; आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, आवश्यकचूर्णि भाग १ - २; महापुराण, पद्मपुराण ५. १४ आदि । २. महापुराण, १४.१६०-१६५, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २.३०; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १.२.६४७-६५३; आवश्यकनिर्युक्ति, ११९-१२०, श्रीमद्भागवत, ५.४.२; और भी देखिये, डॉ० स्टीवेन्सन ( कल्पसूत्र की भूमिका); डॉ० राधाकृष्णन् ( भारतीय दर्शन का इतिहास, जिल्द १, पृ० २८७) आदि विचारकों ने भी ऋषभदेव की ऐतिहासिकता को स्वीकार किया है। ऋषभदेव और उनके अनुयायी समुदायों के सन्दर्भ देखें व्रात्य - अथर्ववेद का व्रात्यकाण्ड; देवासुर संग्राम ऋ० १०.२२-२३; ६.२५.२; १०.१००.३२); दास - दस्यु (ऋ० १.१३०.८; ९.४१.१; ऋ० ४.३०.२०; २. ११.४); केशी - ऋषभ (ऋ० १०.१३१.१); ऋषभ और हिरण्यगर्भ (ऋ० १०.१२१; २.८; १०.१.४.५ ); अर्हन् (ऋ० १.६.३०, ५.४.५२; २.१:३.३); वातरशना और केशी मुनी (ऋ० १०.११.१३६) आदि; बौद्ध साहित्य के उल्लेखों को देखिए लेखक की पुस्तक Jainism in Buddhist Literature ( प्रथम अध्याय ) । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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