Book Title: Tattvartha Sutra Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ समझा जा सकता है। प्रारम्भिक काल का ग्रन्थ होने के कारण जैन दर्शन के अनेक सिद्धांत जैसे प्रमाण मीमांसा, गुणस्थानक सिद्धांत इसमें अनुपस्थित है। साथ ही जैन धर्म दर्शन के भी प्रथम द्वितीय शताब्दी में जो सिद्धांत उपस्थित रहे है उन्हीं पर इस ग्रंथ के सूत्रों की रचना की गई है। वर्तमान में इस ग्रंथ के दो पाठ उपलब्ध होते है। श्वेताम्बर परम्परा में इसका भाष्यमान पाठ स्वीकृत रहा है। जबकि दिगम्बर परम्परा इसके सवार्थसिद्धि मान्य पाठ को ही मुख्यता देता है। यद्यपि इन पाठों में मुख्य अंतर नहीं है। इसका प्रथम भाष्यमान पाठ अपेक्षाकृत प्राचीन है। इसको देखकर ऐसा लगता है कि यह जैन धर्म दर्शन प्राथमिक व सर्व प्रचलित ग्रंथ रहा है। कालक्रम की अपेक्षा से यह ग्रंथ ईसा की प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के मध्य में लिखा गया है। जैन धर्म दर्शन के प्राचीनतम स्वरूप को जानने में यह ग्रन्थ विशेष रूप से सहायक है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि यह विविध दर्शनों के मतों को समन्वय करके चलता है। अतः आज भी जैन दर्शन के अध्ययन के लिए इसका अध्ययन अपरिहार्य माना जा सकता है। यही कारण है कि हमने आदिनाथ जैन ट्रस्ट के माध्यम से चल रही जैन विद्या सम्बंधी परिक्षाओं में इसे महत्वपूर्ण स्थान देने का प्रयास किया है। यद्यपि यह मूलग्रंथ संस्कृत भाषा में रचित प्रथम ग्रंथ है। फिर भी वर्तमान काल में जैन धर्म दर्शन सिद्धांतों को समझने के लिए अति सहायक है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए इसके हिन्दी में भी अनुवाद हुए है और इसलिए में आपकी प्रशंसा करता हूँ। मेरी अपेक्षा यही है कि जैनधर्मदर्शन को समझने के इच्छुक व्यक्ति इस ग्रंथ से नानाविध प्रेरणा लेकर जैन धर्म दर्शन के सम्बन्ध में अपने ज्ञान का विकास करें। xiii इसी अपेक्षा के साथ डॉ. सागरमल जैन A

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 162