Book Title: Swapna Sara Samucchay
Author(s): Durgaprasad Jain
Publisher: Sutragam Prakashak Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ परन्तु इन लोगोंका स्वज्ञान उनकी उन्नतिमें प्रन्तरायरूप होता है । अवास्तविक स्वज्ञानवाला आदमी कभी अपने से सन्तुष्ट नहीं होता, और वह समझता है कि समाज में उसके योग्य कोई स्थान नहीं है । ऐसे व्यक्ति के अन्तःकरण में विरोधी विचारोंका सदा संघर्ष चलता रहता है । वह बहुत कुछ करने की ठानता है, परन्तु अपने संकल्पों एवं विचारों पर जब अमल करनेका सवाल प्राता है, तब उसे पसीना छूटने लगता है, उसकी जीभ तुतलाने लगती है, और अपनी लाचारीके लिए वह कुछ न कुछ बहाना खोज निकालता है । वास्तविक और वास्तविक स्वज्ञान - वास्तविक और अवास्तविक स्वज्ञान की परीक्षा करना, ऊपरसे जितना सुगम दिखाई देता है उतना सुगम नहीं है । मनोविज्ञान की पुस्तकें पढ़ डालने से, स्वज्ञानका सम्पादन नहीं होता । इस ज्ञान के लिए अपनी निरीक्षण शक्ति का उपयोग करना चाहिए। अपने विचारों को जांचना ठीक है परन्तु सूक्ष्मवीक्षरण शक्ति का उपयोग करते हुए हमें याद रखना उचित है कि "हमारे सारे प्रत्यक्ष एवं चेतन व्यवहार का संचालन उन अप्रत्यक्ष एवं जड़ विचार शृङ्खलानों तथा अभिलाषानों द्वारा होता है, जो साधारतिया अजड़रूप में हमारे भीतर की गहराई में दबी रहती हैं; क्योंकि वे हमारे चेतन व्यवहार के आदर्शों के प्रतिकूल होती हैं । यहां यह भी जानना चाहिए कि विकृत जड़ मनको पहचानने का काम इस प्रयत्न में श्राने वाली रुकावट के कारण, मनको चेतन या अचेतन दो भागों में बांट सकते हैं । अवरोध की प्रतीति मनके विचारों का निरीक्षण करनेका प्रयत्न करते समय ही होती है । जिस प्रकार गहन समुद्र की गहराई में छुपी हुई प्रसंख्य वस्तुनों का पता लगाने के लिए गोताखोर की राह में अनेक रुकावटें आती हैं, उसी प्रकार अपने मनकी गंभीरता तक 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100