Book Title: Sutrkritang Sutram Pratham Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

View full book text
Previous | Next

Page 470
________________ श्रीसूत्रकृत त्रयोदश नियुक्तिश्रीशीला वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः 1 // 438 // वा तत् प्रेक्षमाणः पर्यालोचयन् सूत्रार्थं सदनुष्ठानतोऽभ्यस्यन् सर्वेषु स्थावरजङ्गमेषु सूक्ष्मबादरभेदभिन्नेषु पृथिवीकायादिषु श्रुतस्कन्धः१ दण्ड्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डः- प्राणव्यपरोपणविधिस्तं निधाय परित्यज्य, प्राणात्ययेऽपि याथातथ्यं धर्म नोल्लयेदिति / मध्ययन एतदेव दर्शयति- जीवितं असंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावरजङ्गमजन्तुदण्डेन नाभिकासी स्या(क्षे)त् परीषहपराजितो याथातथ्यम्, वेदनासमुद्धात(समव)हतोवा तद्वेदनाम(भि)सहमानोजलानलसंपातापादितजन्तूपमर्दैन नापि मरणाभिकाजी स्यात् / तदेवं. सूत्रम् 21-23 (577-579) याथातथ्यमुत्प्रेक्षमाणः सर्वेषु प्राणिपरतदण्डोजीवितमरणानपेक्षी संयमानुष्ठानं चरेद्- उद्युक्तविहारी भवेत् मेधावी मर्यादा सदसत्तो: व्यवस्थितो विदितवेद्यो वा वलयेन्-मायारूपेण मोहनीयकर्मणा वा विविधं प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्त इति / इतिः परिसमाप्त्यर्थे / धर्माधर्माः ब्रवीमीति पूर्ववत् // 23 // 579 // समाप्तं च याथातथ्याख्यं त्रयोदशमध्ययनमिति // // श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविरचितायां श्रीसूत्रकृताङ्गवृत्तौ त्रयोदशमध्ययनं याथातथ्याख्यं समाप्तमिति / / // 438 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520