Book Title: Sutrkritang Sutram Pratham Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 476
________________ श्रुतस्कन्धः। चतुर्दश श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 444 // मध्ययनं ग्रन्थः , सूत्रम् 5-6 (584-585) निर्गन्थानां गुणाः कथनतो वोद्भासयेदिति / तदेवं यतो गुरुकुलवासो बहूनां गुणानामाधारो भवत्यतो न निष्कसेत्न निर्गच्छेत् गच्छादुर्वन्तिकाद्वा बहिः, स्वेच्छाचारी न भवेद्, आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः, तदन्तिके निवसन् विषयकषायाभ्यामात्मानं ह्रियमाणं ज्ञात्वा क्षिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वत एव वा निवर्तयतिसत्समाधौ व्यवस्थापयतीति // 4 // 583 // तदेवं प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासमावसन् सर्वत्र स्थानशयनासनादावुपयुक्तो भवति तदुपयुक्तस्य च गुणमुद्धावयन्नाह जे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते / समितीसु गुत्तीसु य आयपन्ने, वियागरिते य पुढो वएन्जा // सूत्रम् 5 // ( // 584 // ) सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसुपरिव्वएज्जा / निदं च भिक्खून पमाय कुज्जा, कहंकहं वा वितिगिच्छतिन्ने ॥सूत्रम् 6 // ( / / 585 // ) डहरेण वुडेणऽणुसासिए उ, रातिणिएणावि समव्वएणं / सम्मंतयं थिरतो णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से। सूत्रम् 7 // ( // 586 // ) विउट्टितेणं समयाणुसिट्टे, डहरेण वुड्डेण उचोइए य। अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिढे। सूत्रम् 8 // ( // 587 // ) यो हि निर्विण्णसंसारतया प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासतः स्थानतश्च स्थानमाश्रित्य तथा शयनत आसनतः, एकश्चकारः समुच्चये द्वितीयोऽनुक्तसमुच्चयार्थः चकाराद्गमनमाश्रित्यागमनं च तथा तपश्चरणादौ पराक्रमतश्च, (सु) साधो: (r) तत्समाधौ (प्र०)। 0 तदेवं गुरु० (प्र०)।

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