Book Title: Sutrkritang Sutram Pratham Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्ति श्रीशीला वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 452 // श्रुतस्कन्धः१| चतुर्दशमध्ययनं | ग्रन्थः , सूत्रम् 17-20 (596-599) निर्गन्थानां गुणाः हृदयव्यवस्थापनद्वारेणावधारितं तस्मिन् समाधिभूते मोक्षमार्गे सुष्ठ स्थित्वा त्रिविधेने ति मनोवाक्कायकर्मभि:कृतकारितानुमतिभिर्वाऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा तस्य स्वपरत्रायिणः, एतेषु च समितिगुप्त्यादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शान्तिर्भवति- अशेषद्वन्द्वोपरमो भवति तथा निरोधं- अशेषकर्मक्षयरूपं आहुः तद्विदः प्रतिपादितवन्तः, क एवमाहुरित्याह- त्रिलोकं- ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिनः तीर्थकृतः सर्वज्ञास्ते एवं अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन दृष्ट्रा आचक्षते प्रतिपादयन्तीति / एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसारोत्तारणसमर्थं ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तोन पुनर्भूय एतं (न) प्रमादसङ्गमद्यविषयादिकं सम्बन्धं विधेयत्वेन प्रतिपादितवन्तः॥ 16 // 595 // किश्चान्यत् - निसम्म से भिक्खुसमीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारए य / आयाणअट्ठी वोदाणमोणं, उवेच्च सुद्धेण उवेति मोक्खं ।।सूत्रम् 17 // // 596 // ) संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति / ते पारगा दोण्हवि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति // सूत्रम् 18 // ( // 597 // ) णो छायए णोऽविय लसएन्जा, माणं ण सेवेज पगासणं च / ण यावि पन्ने परिहास कुजा, ण याऽऽसियावाय वियागरेज्जा // सूत्रम् 19 // ( // 598 // ) भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिव्वहे मंतपदेण गोयं / ण किंचि मिच्छे मणुए पयासुं, असाहुधम्माणि ण संवएज्जा / / सूत्रम् 20 0 क्कायगुप्तिभिः (प्र०)। // 452 //
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