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महाराजजी ने ११ मंदिरों की स्थापना, १४ की प्रतिष्ठा, २ अंजनशलाका, ७ उपाश्रय, ४ उजमणा और ६ उपधानों का कार्य किया है । उन्होंने २ - ३ शिक्षात्मक प्रवृत्तियों में दान भी दिलवाया है। उन्होंने अस्पताल बनवाने में भी योगदान दिया है । इस तरह कई प्रकार की प्रवृत्ति एवं कार्य-कलापों के बीच पन्यास श्री अविरत रूप से जैन समाज, जैन धर्म एवं जैन संस्कृति की सेवा में रत है ।
'सुरसुंदरीचरित्रं' की भूमिका लिखने का महत्त्वपूर्ण दायित्व महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा के प्रशासन मंत्री एवं हिंदी के ज्येष्ठ-श्रेष्ठ प्रचारक श्री गो. प. नेनेजी ने निभाया, अतः मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ ।
प्रस्तुत पुस्तक के संयोजन, मुद्रण, संशोधन की पूरी ज़िम्मेदारी श्री मु. मा. जगताप ने अत्यंत कुशलतापूर्वक निभाई, अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ । विनीत रंजन परमार
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