Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown
View full book text
________________
पुन्वभवपत्थावो।
इय गुरुनिब्बंधेणं भणिया सा रंघिऊण मुहिगाए । मह देइ भोयणं नियगिहम्मि भुत्तुत्तरेय अहं ॥१५९॥ जा मायंगस्स गिहं वच्चामि सुणेमि ताव अक्कंदं । तो तस्सन्निहियजणा पुट्ठा तक्कारणं तेहिं ॥१६०॥ कहियं, जह मायंगो जस्स समीवम्मि आगओ तं सि । सो संपइ मूढविमुइयाए पंचत्तमणुपत्तो ॥१६१ ॥ इय सोउं विमणमणो अहयं तं सिटिणीए कहिऊणं। जानियनयराभिमुहं चलिओ तो तीएइयभणिओ॥१६२॥ जह बीयदिणं चिट्टसु इहेव काऊण बंधव ! पसायं । चेइहराइं वंदसु तह पाहुणगो य मे होसु ॥१६३॥ इय अइनिबंधपरं तीसे वयणं निसामिऊणमए। पडिवज्जियंतहच्चिय एत्तो दुइयम्मि दिवसम्मि॥१६४॥ किविणपियामहसिट्ठी तीए गंतूण हट्टउवविठ्ठो । भणिओ जह मह बंधू भुजिही अज्ज तुह गेहे ॥१६॥ ता सालिदालिसुसुयंधसप्पिपभीइ समप्पहत्ति तओ। सिट्ठी तयभिभुहं भणइ भुंजिही कह णुतुहबंधू ॥१६६॥ देसागओवि अइदुत्थिओवि तइया गिहाउ मे मुक्को। निकालेउ बंधू सहोयरोवि हुन किं सरसि ?॥१६७॥ अन्नं च, कुणसि वत्तं सालीदालीणतंन किं मुणसि?।जंदेवागिहे जंतीए तुज्झतुसणी अणुण्णाया॥१६८॥ किञ्च, जइ बंधुसिणेहग्गहगहिया चिठ्ठसि कहंपिन तुमंता। मुंजाइयाए मह सोवि जिम्मउ तिल्लेण सह वल्ले।।१६९॥ सा भणइ नियागिहेवि हुघयघेउरभोयणं समाकुणइ । मह भाया, तासामिय! लज्जिस्समहं इमं दिती॥१७०॥ अहसो अणक्खभरिओपभणइ पुव्वागया सिरीजस्स। विलसंतस्स जहिच्छं का पीडा तस्स का निट्ठा?॥१७१॥ इति गुरुनिर्बन्धेन भणिता सा रन्धित्वा मुधा । मम ददाति भोजनं निजगृहे, भुक्त्वा त्वरेयाहम् ॥ १५९ ॥ यावद् मातङ्गस्य गृहं व्रजामि शृणोमि तावदाक्रन्दम् । ततस्तत्संनिहितजनाः पृष्टास्तत्कारणं तैः ॥ १६० ॥ कथितं, यथा मातङ्गो यस्य समीप आगतस्त्वमास । स संप्रति मूढविसूचिकया पञ्चत्वमनुप्राप्तः ॥ १६१ ॥ इति श्रुत्वा विमनोमना अहकं तत् श्रेष्ठिन्यै कथयित्वा । यावन्निजनगराभिमुखं चलितस्ततस्तयेति भणितः ॥१६२॥ यथा द्वितीयदिनं तिष्ठेहैव कृत्वा बान्धव ! प्रसादम् । चैत्यगृहाणि वन्दस्व तथा प्राघुणकश्च मम भव ॥१६३॥ इत्यतिनिर्बन्धपरं तस्या वचनं निशम्य मया। प्रतिपन्नं तथैवेतो द्वितीयस्मिन् दिवसें ॥ १६४ ॥ कृपणपितामहश्रेष्ठी तया गत्वा हट्टोपविष्टः । भणितो यथा मम बन्धुभेक्ष्यतेऽद्य तव गेहे ॥ १६५ ॥ तस्माच्छालिसूपसुसुगन्धसर्पिःप्रभृति समर्पयेति ततः। श्रेष्ठी तदभिमुखं भणति भोक्ष्यते कथं नु तव बन्धुः? ॥१६६॥ देशागतोऽप्यतिदुःस्थितोऽपि तदा गृहान्मया मुक्तः । निष्काश्य बन्धुः सहोदरोऽपि खलु न किं स्मरसि? ॥१६७॥ अन्यच्च, करोषि वाती शालिसूपयोस्तन्न किं जानासि ? । यद् देवगृहे यान्त्यास्तव तूष्णीमनुज्ञाता ॥ १६८॥ किञ्च, यदि बन्धुस्नेहग्रहगृहीता तिष्ठसि कथमपि न त्वं ततः । भोजिकया मम सोऽपि भोज्यतां तैलेन सह वल्लान् ॥१६९॥ सा भणति निजगृहेऽपि खलु घृतघृतपूरभोजनं सदा करोति । मम भ्राता, तस्मात् स्वामिन् ! लज्जिष्याम्यहमिदं ददती।। अथ स कोपभरितः प्रभणति पूर्वागता श्रीर्यस्य । विलसतो यथेच्छं का पीडा तस्य का निष्ठा ? ॥१७१॥
१ग. सोऊण । २ ग. णम्मणो । ३ ग. अहं मि° । ४ क. तुसली।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 282