Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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प्रस्तावना
देखने-जानने का प्रयास करें।
चरित्र निर्माण की भूमिका को सशक्त बनाने की दिशा में संकेत करते हुए ग्रंथकार कह रहे हैं'हम ऐसी चिनगारी बन सकते हैं जिससे असत्, अशुद्ध एवं अशुभ के ढेर को जला कर नष्ट कर सकें। वास्तव में चिनगारी का ही महत्त्व है। छोटे-छोटे प्रयास जितने महत्त्वपूर्ण हैं, उतना महत्त्व बड़े प्रयास का नहीं होता। ज्वालाएँ एक साथ भभकती हैं और सबको भस्मीभूत कर देती हैं। हाँ, चिनगारी भी यही जलाने का ही काम करती है, लेकिन ताकत में अंतर है।ज्यादा ताकतवर जल्दी ही निरुत्साहित हो जाता है, परन्तु चिनगारी भले ही कम ताकतवर हो, पर जलती ही रहेगी और ऐसा काम करेगी जो ज्वाला नहीं कर पाती। फिर ये चिनगारियाँ एक साथ समूह में ही उछलती और काम करती हैं। वही चिनगारी हम बनें, जो हमारे भीतर में रहे हुए असत्, अशुद्ध एवं अशुभ के ढेर को जला सके, चारित्रिकता का उत्थान कर सके एवं बाहर के ऐसे ही ढेर को भी चरित्रबल के माध्यम से जलाकर सर्वत्र चरित्रनिष्ठा के सुखद वातावरण की रचना कर दे।'
युवा पीढ़ी के चरित्र पर एक सशक्त दृष्टि प्रदान करते हुए ग्रंथकार कहते हैं
'जब किसी विस्फोट से कोई इमारत ढह जाती है और उसकी नींव तक क्षतिग्रस्त हो जाती है तब इसके सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं रह जाता कि उस इमारत का नव निर्माण नींव से किया जाए। ऐसी ही दुर्दशा हुई है नई पीढ़ी के चरित्र निर्माण की अब तक कि उसके खड़े होने की कोई ठोस जमीन उसके पैरों तले नहीं रही है और न ही उसकी अपनी पहचान की विशेषता उसके व्यक्तित्व में सफाई है। ऐसे में नई पीढ़ी के नींव से नव निर्माण की चर्चा उठाई जाए तो वह सभी दृष्टियों से उपयुक्त मानी जाएगी। लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि नई पीढ़ी का नव निर्माण ऐसा प्रभावशाली हो जो नए सत्कृति युग की पहचान बन जाए। ऐसे नव निर्माण के कुछ बुनियादी बिन्दु निर्धारित किए जाने चाहिए।'
संस्कारों पर एक दृष्टि क्षेप ग्रंथकार किस रूप में करते हैं, देखें'आज के अर्थ के अनर्थ को मिटाने के लिए जरूरी है कि प्राथमिक शिक्षा ही सत्संस्कारों के आरोपण से हो। बालक, किशोर और नवयुवक अपने अतहृदय में इस सत्य को स्थापित कर दें कि जीवन का उच्चतम विकास सत्संस्कारों के आधार पर ही साधा जा सकता है। यही सच्चा धन है। जो भौतिक धन, सम्पत्ति या सत्ता की बात है, वह कितनी भी आकर्षक लगे, पर अन्ततः वह चारित्रिक गुणों को नष्ट करने वाली ही सिद्ध होती है। अतः जीवन में सत्संस्कार, सद्व्यवहार एवं सहकार की त्रिवेणी बहती रहे यही सुख का मूल है।'
चरित्र एवं विवेक की समन्विति की उपलब्धि को ग्रंथकार ने बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है'चरित्र और विवेक जब एक रूप हो जाते हैं तब तो प्राप्त शक्ति का कहना ही क्या? उसका सदुपयोग ही नहीं होगा, बल्कि उस शक्ति का ऐसा अपूर्व विकास होगा कि वह व्यक्ति को न केवल
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