Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 14
________________ सुचरित्रम् XII एवं मानव जाति के मूल उद्देश्य को भस्मसात करने वाली चारित्रिक पतन पर क्यों आँख मिचौली किए बैठे हैं? यह एक ज्वलंत प्रश्न है । इसका समाधान बुद्धिजीवियों अथवा शीर्षस्थ राजनीतिज्ञों से मिल पाना अत्यंत कठिन है। समाधान दे सकते हैं केवल अध्यात्म साधक धर्म संघ के पुरोधा आचार्यगण । किन्तु उधर से भी ऐसी कोई सशक्त पहल दृष्टिगत नहीं होती। लगभग सभी का ध्यान अपने-अपने धर्म संगठन को सुदृढ़ करने की दिशा में ही नियोजित है। जबकि यह आज की ज्वलंत समस्या है और इस दशा में सशक्त आमूलचूल परिवर्तन की क्रांति प्रारंभ होनी चाहिए । चरित्रोन्नयन की एक सकारात्मक एवं सशक्त पहल अपने सशक्त एवं सचोट लेखन के माध्यम से कर हैं महामहिम प्रज्ञानिधि चरित्र पुरुष आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. चूँकि आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. स्वयं अनवरत चरित्र पर्याय में रमण करने वाले साधक पुरुष हैं। चरित्र उनका जीवन है, चरित्र उनकी साधना है, चरित्र उनकी आत्मा है और चरित्र की परिपूर्णता उनका चरम साध्य है। चूँकि वे स्वयं चरित्र पुरुष, नवनवोन्मेषी प्रज्ञा के धारक, तेजस्वी प्रभावक, महामनीषी, आत्म साधक होते हुए भी वे एक धर्माचार्य हैं। आचार्य होने के नाते वे समाज व जगत के प्रति अपने कर्त्तव्य बोध के प्रति सजग हैं अतः देश व समाज की वर्तमान स्थिति पर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक है । समाज व देश की चारित्रिक पतन की तात्कालिक स्थिति को देखकर एक आचार्य के हृदय का अनुकम्पित होना सहज प्रक्रिया है । उस प्रक्रिया का प्रतिफलन है प्रस्तुत ग्रंथ। यह ग्रंथ राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की एक ठोस भूमिका को प्रस्तुत करता ही है, साथ ही उसके लिए क्रांति का शंखनाद भी करता है । बाल, युवा, महिला एवं प्रौढ़ वर्ग का चरित्र कैसा होना चाहिए, उसकी जीवनशैली कैसी होनी चाहिए, उसके जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए एवं उसका समूचा आचारव्यवहार कैसा होना चाहिए इसकी विशद् विवेचना प्रस्तुत ग्रंथ की विषय वस्तु है । आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. एक विशाल संघ के सुयोग्य आचार्य होने के साथ ही अन्य अनेक मानवीय संवेदनात्मक सद्गुणों के कोष भी हैं। वे सुमधुर गायक, मृदुल गीतकार, सहृदय कवि, सरस कथाकार एवं भाव प्रवण ओजस्वी व्याख्याता भी हैं। उनकी वाणी में मृदुता के साथ ओजपूर्ण सशक्तता है तो उनके व्यवहार में भी आत्मीयता के साथ अनुशासन में कठोरता भी है । वे कोमल हृदयी प्रखर वाग्मी हैं। उनकी वाणी में श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर बांधे रखने की कशिश है। एक बार जो आप से जुड़ता है वह आपका ही बनता जाता है ऐसा आपका आभामण्डल है । आपके व्यक्तित्व में ओज-तेज के साथ चुम्बकीय आकर्षण है। आप स्वयं चरित्र साधना के पथिक एवं पुरोधा हैं अतः आपके द्वारा प्रस्तुत चरित्र निर्माण का यह उद्घोष अवश्य प्रभावी होगा और समाज और देश को ही नहीं वरन् संपूर्ण जगत को एक नूतन सशक्त क्रांतिकारी दिशा प्रदान करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है । चरित्र निर्माण की दिशा में ग्रंथ की महत्त्वपूर्ण उपयोगिता - भूमिका को हम ग्रंथ के आधार पर

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