Book Title: Sramana 1995 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ भक्तामरस्तोत्र : एक अध्ययन : ९ प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ।। यही वह बिन्दु है, जहाँ भक्त सीमा को लाँघकर असीम की ओर प्रस्थान करता है, सीमा में ही असीम की सत्ता को पकड़ लेता है। भक्त कवि मानतुङ्ग को भी इसमें महारथ हासिल है। अल्पश्रुतं श्रुतवनां परिहास-धाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्मान् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्र- चारू कलिकानिकरैकहेतुः । । और जब भक्त सम्पूर्णतया प्रभु चरणों में प्रपन्न हो जाता है, तब कहाँ भय, कहाँ दुःख और असमर्थता ? यही प्रपत्ति / भक्ति का मूल है। स्तोता इसी से पूर्ण हो जाता है, आत्म-रमण में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार हीनता - बोध, प्रभु चरण में अटूट विश्वास और प्रभु-विभूति-बोध आदि स्तोता के लक्षण भक्तामर स्तोत्र में संघटित होते हैं । २. स्तव्य स्तव्य कोई समर्थ होता है, जो समय पर काम आ सके। वह सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, बन्धनमुक्त, कृपालु, करुणापूर्ण, दीनरक्षक, रूपनगर, सुधामय, सुरम्यॉँग, शुभलक्षण सम्पन्न, रुचिर, तेजोमय, बलवान, सत्यभाक्, प्रियभाषी, विजितेन्द्रिय, विदग्ध, चतुर, वशी, दान्त, वक्षन्य, समताधर्मनिरत, आर्तसंरक्षक एवं भवसागरसन्तारक होता है । भक्तामर स्तोत्र के प्रथम श्लोक में भगवान ऋषभदेव के तीन रूपों का बिम्बन हुआ है ( क ) देवों द्वारा प्रणम्य, ( ख ) पापतमविनाशक और Jain Education International ( ग ) भवजल में गिरते हुए जीवों का एकमात्र अवलम्ब । प्रभु विश्ववंद्य एवं जगत्स्तुत्य होता है यः संस्तुतः सकलवाङ्मय तत्त्वबोधाद्, उद्भूत बुद्धि पटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर्जगतित्रय चित्तहरैरुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।। १. सर्वज्ञ स्तव्य सर्वज्ञ होता है। अल्पसत्व या अल्पज्ञानी स्तव्य नहीं हो सकता है। जिसके चरण विद्वज्जन के लिए शिरोभूषण है । भक्तामर का स्तव्य भी उसी सरण में प्रतिष्ठित है । वह अनन्त ज्ञानराशि से परिपूर्ण है : ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104