Book Title: Sramana 1995 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 25
________________ नागेन्द्रगच्छ का इतिहास : २३ आसीनागेन्द्रकुले लक्ष्मणसूरिनितान्तशान्तमतिः। तद्गच्छे गुरुतस्यन् नाम्नाऽऽसीत् शीलरु(भ) द्रगणिः।। शिष्येण मूलवसतौ जिनत्रयमकार्यत। भृगुकच्छे तदीयेन पार्श्विल्लगणिना वरम्।। शक संवत् ६१० लक्ष्मणसूरि शीलभद्रगणि पार्श्विल्लगणि ( शक सं० ६१०/ई० सन् ६८८ में त्रितीर्थी जिनप्रतिमा के प्रतिष्ठापक ) पाविलगणि के प्रगुरु लक्ष्मणसूरि ई० सन् की १०वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में विद्यमान माने जा सकते हैं। ईस्वी सन् की ११वीं शताब्दी से इस कुल के बारे में विस्तृत विवरण प्राप्त होने लगते हैं। इस शताब्दी के पाँच प्रतिमालेखों में इस कुल का नाम मिलता है। वि० सं० १०८६/ई० सन् १०३०१ और वि० सं० १०६३/ई० सन् १०३७२२ के दो धातु प्रतिमा लेखों में नागेन्द्रकुल और इससे उद्भूत सिद्धसेनदिवाकरगच्छ का उल्लेख है। राधनपुर से प्राप्त वि० सं० १०६१/ई० सन् १०३५ की धातुप्रतिमा पर भी नागेन्द्रकुल ( भ्रमवश पढ़ा गया पाठ कानेन्द्रकुल ) का उल्लेख मिलता है ।२ ओसियां से प्राप्त वि० सं० १०८८/ई० सन् १०३२ के एक प्रतिमालेख में सर्वप्रथम नागेन्द्रकुल के स्थान पर नागेन्द्रगच्छ का नाम मिलता है।२४ इस लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य वासुदेवसूरि को नागेन्द्रगच्छीय बतलाया गया है। महावीर जिनालय, जूनागढ़ से प्राप्त अम्बिका की एक प्रतिमा ( वि० सं० १०६२/ई० स० १०३६ ) पर भी इस कुल का उल्लेख हुआ है। समुद्रसूरि के शिष्य और भुवनसुन्दरीकथा (प्राकृतभाषामय, रचनाकाल शक सं० ६७५/ई० सन् १०५३ ) के रचनाकार विजयसिंहसूरि भी इसी कुल के थे ।२६ ___ महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के पितृपक्ष के कुलगुरु और प्रसिद्ध आचार्य विजयसेनसूरि भी नागेन्द्रगच्छ के थे। उनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने स्वरचित धर्माभ्युदयमहाकाव्य ( रचनाकाल वि० सं० १२६० से पूर्व ) की प्रशस्ति में अपने गुरु-परम्परा की लम्बी तालिका दी है जिसके अनुसार नागेन्द्रगच्छ में महेन्द्रसूरि नामक एक आचार्य हुए जो आगमों के महान ज्ञाता और तर्कशास्त्र में पारंगत थे। उनके शिष्य शान्तिसूरि हुए जिन्होंने दिगम्बरों को शास्त्रार्थ में हराया। उनके आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि नामक दो शिष्य हुए। चौलुक्य नरेश जय सिंह सिद्धराज (वि० सं० ११५०-११६८/ ई० सन् १०६४-११४२) ने उन्हें 'व्याघ्र शिशुक' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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