Book Title: Sramana 1995 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 74
________________ ७२ : श्रमण/ जुलाई-सितम्बर/१९९५ अवधि में एक जगह ही रहते हैं और आराम करते हुए भी भक्तों को संसार-बन्धन से मुक्त करते रहते हैं। इसी परम्परा में भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को अनन्त विष्णु की पूजा करके वैष्णव लोग कच्चे सूत का चौदह गाँठों वाला रँगा हुआ एक डोरा अपनी बाजू पर बाँधते हैं जो व्यापक वैष्णव परम्परा के अनुयायी होने का प्रतीक है। यह बन्धन संसार के बन्धनों से मुक्ति दिलाता है। वैष्णव परम्परा का यह उत्सव वर्षाकालीन चातुर्मास का प्रमुख व्रत है। वैष्णव सम्प्रदायों में भक्तिकालीन धाराओं के आने के साथ जब विष्णु के गोपाल और वृन्दावन-बिहारी रूप की माधुर्य लक्षणा भक्ति प्रचलित हुई तो व्यापक और अनन्त विष्णु की मर्यादापरक पूजा उतनी सुप्रचलित नहीं रही जितनी मध्यकाल में थी, तथापि उसके प्रतीक के रूप में आज भी वैष्णवों में अनन्त का व्रत करने और डोरा बाँधने की यह परम्परा चली आ रही है। जैसा पहले बताया जा चुका है जैन आम्नायों में भाद्रपद मास के इन पर्यों का सर्वाधिक महत्त्व है। जैन धर्म में शारीरिक वृत्तियों का अधिकाधिक संयम, आचार का कट्टर अनुशासन और सांसारिक बन्धनों से पूर्ण विरक्ति आदि को प्रमुखता दी गयी है। इसी का अंग है उपवास ( कषाय, विषय और आहार का त्याग ) जिसका सिद्धान्त है शरीर का मोह त्याग कर उसकी वृत्तियों को नियन्त्रित करना। उपवास तथा अन्न-जल त्याग की यह धारणा जैन आचार का महत्त्वपूर्ण अंग है। अन्न-जल त्यागी साधुओं और श्रावकों को सर्वाधिक श्रद्धा का पात्र इसी दृष्टि से माना जाता है। कुछ विद्वानों का तो यह मानना है कि, उपवास की अवधारणा जो सनातनी परम्पराओं में भी व्याप्त हो गई है, श्रमण संस्कृति का प्रभाव है, अन्यथा वैदिक संस्कृति में व्रत तो था, उपवास नहीं। जो भी हो उपवास से सम्बन्धित आचारों का प्रमुख केन्द्र भाद्रपद मास ही जैन धर्म के दोनों आम्नायों ( श्वेताम्बर और दिगम्बर ) में माना जाता है। इस मास में अधिक से अधिक आत्मसंयम का पालन तथा उपवास रख धार्मिक आचारों का पालन और उपदेशों का श्रवण जैन धर्मावलम्बियों के प्रमुख धार्मिक कृत्य हैं। दिगम्बर आम्नाय में इसे दशलक्षण पर्व कह कर भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। इन दस दिनों में धर्म के दस प्रकारों या तत्त्वों ( उत्तम अर्थात् अध्यात्मोन्मुख क्षमा अर्थात् सहनशीलता, उत्तम मार्दव अर्थात् नम्रता, उत्तम आर्जव अर्थात् सरलता व सहजता, उत्तम सत्य अर्थात् सच्चाई, उत्तम शौच अर्थात् निःस्पृहता, संयम अर्थात् अनुशासन, तप, त्याग, आकिंचन्य अर्थात् अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य अर्थात् अध्ययन ) का पालन और उपदेश-श्रवण किया जाता है। इसके अनन्तर आश्विन कृष्ण द्वितीया को क्षमापना पर्व मनाया जाता है जब समाज के प्रत्येक व्यक्ति से मतभेद भुलाकर किसी भी प्रतिकूल वचन या कार्य के लिए सबसे क्षमा माँगी जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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