Book Title: Sramana 1995 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 73
________________ चातुर्मास : स्वरूप और परम्पराएँ : ७१ __ भारत की श्रमण संस्कृति भी बहुत प्राचीन है। इसमें भी वर्ष के चार माहों में साधुओं और मुनियों के एक स्थान पर रह कर धर्मोपदेश करने की बहुत प्राचीन परम्परा है। उसी परम्परा में आज भी भाद्रपद माह में जो चातुर्मास का मध्य है, जैन धर्मावलम्बी पर्युषण पर्व मनाते हैं। दिगम्बर आम्नाय में इसे दशलक्षण पर्व कहा जाता है। ये वर्ष भर के महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य हैं। दिगम्बर जैनों में इसकी पूर्ति के बाद क्षमापना पर्व भी मनाया जाता है। वर्षाकालीन इन मासों में धर्माचरण पर विशेष बल देने की परम्परा उपर्युक्त चातुर्मास की परम्परा का ही अंग प्रतीत होती है। महावीर ने गौतम गणधर को प्रथम धर्मदेशना ( उपदेश ) श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को दी थी। जिस प्रकार वर्षा के बादल जल बरसा कर हल्के और शुभ्र हो जाते हैं उसी प्रकार कषायों ( कलुष) और विषयों ( वासना ) का त्याग कर धर्मार्थी इन दिनों निर्मल होने का प्रयत्न करता है। वैष्णव परम्परा के लिए भी श्रावण और भाद्रपद माहों का धार्मिक महत्त्व है। आज भी वैष्णव मन्दिरों में सावन के झूले और झाँकियाँ तो भक्तिकालीन परम्परा के रूप में चले आ रहे हैं किन्तु इससे पूर्व भी जब विष्णु की उपासना को व्यापकता दी जाने लगी थी, सनातन धार्मिक वैष्णव आचारों के प्रमुख कृत्य श्रावण और भाद्रपद माह में किये जाते थे। श्रावण से प्रारम्भ होकर ऐसे उत्सव दीपावली के बाद तक चलते थे। चाहे आज इस अवधि को "देव सोने की" ( देवताओं के सोते रहने की ) अवधि बताकर मांगलिक कार्यों के मुहूर्त निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता हो किन्तु धार्मिक कार्यों का इसमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है बल्कि उनकी विपुलता ही है। गणेश चतुर्थी और जन्माष्टमी के अलावा भाद्रपद शुक्ल पंचमी को ऋषि पंचमी के रूप में इसी माह में मनाया जाता है जिसमें वैदिक ऋषियों का स्मरण किया जाता है। इसी परम्परा का अभिन्न अंग है अनन्त चतुर्दशी, जो वैष्णव सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व मूलतः इस धारणा के साथ शुरू हुआ होगा कि, विष्णु ही महाविभूति (विश्व का पालन करने वाली सर्वव्यापक शक्ति ) अनन्त हैं, अन्तर्यामी हैं और व्यापक हैं। वे नित्य विभूति हैं, राम, कृष्ण आदि उन्हीं की लीला रूप हैं। आचार की मर्यादा को नियन्त्रित करने वाले प्राचीन वैष्णव सम्प्रदाय में (जो वासुदेव सम्प्रदाय से अलग था) विष्णु के इस अनन्त रूप को समस्त वैष्णवों के लिए वन्दनीय माना गया। वैष्णवों की यह धारणा है कि, इन चार माहों में विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं और भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को करवट लेते हैं जिस दिन विष्णु परिवर्तनोत्सव मनाया जाता है। सहस्रशीर्षा विष्णु की तरह सहस्रफण होने के कारण शेषनाग को भी अनन्त कहा जाने लगा था। अनन्त-शयन ( शेषशायी) भगवान विष्णु इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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