Book Title: Sramana 1995 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 78
________________ द्रौपदी कथानक का जैन और हिन्दू स्रोतों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन ( शोध-प्रबन्ध सारांश ) श्रीमती शीला सिंह भूमिका भारतीय सांस्कृतिक परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। विविधता, उदारता, आध्यात्मिकता, समन्वयशीलता ( अर्थात् विभिन्नता में एकता की परिकल्पना ) भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता रही है। प्राचीन काल से ही यहाँ दार्शनिक चिन्तन और जीवन-शैली में विविधता रही है। सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक क्षेत्र में जिन अनेक मार्गों और सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ, उनकी विविधताओं को भारतीय संस्कृति ने सुन्दर ढंग से समाहित किया । भारत का कोई भी दर्शन, कोई भी धर्म, कोई भी जाति, कोई भी वर्ग यह दावा नहीं कर सकता कि वह दूसरे दर्शनों से प्रभावित नहीं हुआ अथवा वह अपने मूल रूप में अक्षुण्ण रहा। वास्तविकता तो यह है कि सभी दर्शनों, धर्मों, वर्गों आदि में परस्पर आदान-प्रदान हुआ है। एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ा है। विभिन्न संस्कृतियों ने परस्पर विनिमय किया। यह आदान-प्रदान जीवन के हर क्षेत्र में हुआ। एक ने दूसरे के देवमण्डल, महापुरुषों, शलाकापुरुषों को अपनाया, फिर उन्हें अपना परिवेश दिया। साहित्य का क्षेत्र इस आदान-प्रदान से कैसे अछूता रह सकता था ? उदाहरण के लिए वैदिक परम्परा के सार्वकालिक महत्त्व के महान महाकाव्य रामायण एवं महाभारत को जैनपरम्परा ने भी ग्रहण किया। महाभारत के कथानकों, पात्रों, घटनाओं को आधार बनाकर जैन साहित्य में प्रायः हर विधा में अर्थात् महाकाव्य, खण्डकाव्य, नाटक, चम्पू आदि रचे गये। जैन परम्परा में भी महाभारत के कथानक या पाण्डव चरित से सम्बन्धित रचनाएँ निर्मित हुई हैं। महाभारत के प्रमुख पात्रों को भी अपनाकर जैनों ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कृष्ण, द्रौपदी, भीम आदि के कथानक इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं। यहाँ स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है कि भारतीय संस्कृति की निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि जैन धर्म एवं दर्शन ने प्रवृत्तिमार्गी वैदिक परम्परा के पात्रों को क्या उसी रूप में अपनाया या उसमें अपनी मान्यताओं के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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