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वाचक श्रीवल्लभरचित 'विदग्धमुखमण्डन' की दर्पण टीका : ७५
अर्थात्, बीच में मूलपाठ एवं उसके ऊपर-नीचे टीका लिखी हुई है। प्रति के कुछ पत्र जर्जरित व टूटे हुए होने से कहीं-कहीं पाठ के अक्षर कट गये हैं। प्रति १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की लिखी प्रतीत होती है। अर्थात् प्रस्तुत टीका के रचयिता के समय या उसके थोड़े बाद की है। पत्रांक २४ में मूलग्रन्थ का प्रथम परिच्छेद प्राप्त हुआ है और उसके ऊपर वाले भाग में प्रथम परिच्छेद की टीका भी पूरी हो गई है। टीका की पुष्पिका में लिखा है – “इति श्रीमद् वृहत् खरतरगच्छाधीश्वर युगप्रधान श्रीजिनचन्दसूरि पट्टालंकारे युगप्रधान श्रीजिनसिंहसूरि शिष्य पट्ट साम्राज्ञा मान युगप्रधान श्री जिनराजसूरि विरचित नाम प्रतिष्ठितेवा० श्रीवल्लभगणि विरचिते श्री विदग्धमुखमण्डन दर्पणे प्रथम परिच्छेद" ।।
इससे यह सिद्ध होता है कि यह दर्पण टीका उन्होंने जिनराजसूरि जी के नाम से रची एवं प्रतिष्ठित की। अतः टीका का रचनाकाल सं० १६७४ के बाद का है। इसी तरह से सोमजी सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य भी सं० १६७४ के बाद ही रचा गया है। इन दोनों रचनाओं की पूर्ण प्रतियाँ अन्वेषणीय हैं।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ में धर्मदास द्वारा रचित विदग्धमुखमण्डन की त्रिलोचनकृत टीका है। इसे संवत् १८६३ में पौष सुदी १ शुक्रवार को अमृतसर में स्थानकवासी परम्परा के श्री दयालऋषि, पू० दीपचन्द ऋषि एवं गुरुदास ऋषि के लघु भ्राता ने लिपिबद्ध किया।
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