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चातुर्मास : स्वरूप और परम्पराएँ : ७३
श्वेताम्बर आम्नाय में इन उपवासों और आचारों को पर्युषण कहा जाता है, जिसका शब्दार्थ है उपासना। भाद्रपद कृष्ण एकादशी से शुक्ल चतुर्थी तक ये पर्व मनाते हैं जिसमें अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और सर्व साधुओं का पूजन, नमन तथा सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र के सिद्धान्तों का चिन्तन व पालन किया जाता है। इसके अनन्तर शुक्ल पंचमी को ( जिसे सनातनी ऋषि पंचमी के रूप में मनाते हैं ) संवत्सरी के रूप में मनाया जाता है जो पर्युषण पर्व की सम्पन्नता ( सफल समाप्ति ) का प्रतीक है। एक तरह से इस दिन श्रावक का आध्यात्मिक पुनर्जन्म या नया वर्ष शुरू हो जाता है। इस प्रकार जैनों के दोनों आम्नायों में भाद्रपद मास के इन धार्मिक पर्यों को वर्ष का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आचार-पर्व माना गया है।
राजस्थान में जैन धर्म का विपुल प्रचार होने के कारण इन पर्यों की गूंज भाद्रपद मास के दूसरे पखवाड़े भर बराबर सुनाई देती रहती है। इसी प्रकार ब्रज की कृष्ण-भक्ति परम्परा का पूरा प्रभाव होने के कारण श्रावण मास की ब्रज-परिक्रमाओं, झांकियों और भाद्रपद मास के व्रत की परम्परा भी यहाँ वर्षों से चली आ रही है। यद्यपि वैदिक संस्कृति के स्वाध्यायों की परम्परा विलुप्त सी हुई प्रतीत होती है किन्तु वैष्णव सम्प्रदाय की अनन्त चतुर्दशी आज भी इस बात की प्रतीक है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति के समन्वय को सनातन भारतीय परम्परा का परिचायक मानने वाला धार्मिक सनातनी वैष्णव, शेषशायी, पृथ्वीपालक विष्णु को आज भी अपनी चेतना में अविभाज्य रूप से व्याप्त मानता हुआ उस अन्तर्यामी अनन्त की पूजा करता है जो ब्रह्माण्ड के विराट स्वरूप का प्रतीक
है।
'निदेशक, भाषा विभाग, राजस्थान शासन। निवास - मंजू निकुंज, सी-८, पृथ्वीराज रोड
जयपुर ( राजस्थान)
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