Book Title: Sramana 1995 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 23
________________ नागेन्द्रगच्छ का इतिहास : २१ नन्दीसूत्र ‘स्थविरावली' । आर्य नागार्जुन ( ई० सन् की चौथी शताब्दी का तृतीय चरण ) आर्य भूतदिन्न ( भूतदत्त ) नाइलकुल से सम्बद्ध अगला साक्ष्य गुप्तकाल का है। पउमचरिय (रचनाकाल प्रायः ई० सन् ४७३) के रचयिता विमलसूरि भी इसी कुल के थे। ग्रन्थ की प्रशस्ति में उन्होंने न केवल अपने कुल बल्कि अपने गुरु और प्रगुरु का भी नामोल्लेख किया है - आर्य राहु आर्य विजय विमलसूरि ( प्रायः ई० सन् ४७३ में 'पउमचरिय' के रचनाकार ) आर्य नागार्जुन और आर्य भूतदिन्न से सम्बद्ध नाइलकुल की परम्परा तथा विमलसूरि द्वारा उल्लिखित इस कुल की गुरु-परम्परा के बीच क्या सम्बन्ध था, यह अस्पष्ट ही है। इसी प्रकार विमलसूरि के अनुगामियों के बारे में भी कोई जानकारी नहीं मिलती। उक्त सभी साक्ष्यों के पश्चात् इस कुल से सम्बद्ध जो साक्ष्य मिलते हैं वे इनसे २०० साल बाद के हैं। ये गुजरात में अकोटा से प्राप्त दो मितिविहीन धातुप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं। इनमें से प्रथम प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में नागेन्द्रकुल के सिद्धमहत्तर की शिष्या आर्यिका खम्बलिया का नाम मिलता है। डॉ० उमाकान्त शाह ने प्रतिमा के लक्षण और उस पर उत्कीर्ण लेख की लिपि के आधार पर उसे ई० सन की सातवीं शताब्दी का बतलाया है। द्वितीय प्रतिमा पर नागेन्द्रकुल के ही एक श्रावक सिंहण का नाम मिलता है। शाह ने इस लेख को भी सातवीं शताब्दी के आस-पास का ही दर्शाया है।१२ सातवीं शताब्दी तक इस कुल के आचार्यों को श्वेताम्बर श्रमणसंघ में अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो चुका था। इसी कारण उस युग की एक महत्त्वपूर्ण रचना व्यवहारचूर्णी में उनके मन्तव्यों को स्थान प्राप्त हुआ। आठवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में इस कुल से सम्बद्ध दो साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं। जम्बूचरियं और रिसिदत्ताचरिय के रचनाकार गुणपाल नागेन्द्रकुल से ही सम्बद्ध थे। रिसिदत्ताचरिय की प्रशस्ति के अनुसार गुणपाल के प्रगुरु का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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