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५८ : श्रमण/ /जुलाई-सितम्बर/१९९५
रचना की । इसका अन्तिम भाग गद्य में है। इसमें जिनालय के निर्माता और उसके कुलगुरु विजयसेनसूरि के विद्यावंशवृक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई सूचना नहीं मिलती। इन्हीं के द्वारा रचित ३३ श्लोकों की वस्तुपालस्तुति नामक कृति भी मिलती है जो किसी घटना विशेष के अवसर पर या किसी सुकृति की स्मृति में रची गयी प्रतीत नहीं होती बल्कि भिन्न-भिन्न अवसरों पर वस्तुपाल की प्रशंसा में रचे गये पद्यों का संकलन है। उदयप्रभसूरि द्वारा रचित ५ श्लोकों की एक अन्य प्रशस्ति भी मिलती है जिसमें आदिनाथ एवं नेमिनाथ के प्रति भक्तिभाव व्यक्त करते हुए वस्तुपाल की दानशीलता, धार्मिकता आदि की चर्चा के साथ उसके दिर्घायु होने की कामना की गयी है।
वस्तुपाल द्वारा धवलक्क में निर्मित उपाश्रय में प्रवास करते हुए उदयप्रभसूरि ने धर्मदासगणितकृत उपदेशमाला रचनाकाल प्रायः ईस्वी सन् छठीं शताब्दी का मध्य भाग ) पर वि० सं० १२६६ / ई० सन् १२४३ में कर्णिका नामक टीका की रचना की५ । इसकी प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि टीकाकार ने अपने गुरु के आदेश पर इसकी रचना की। कनकप्रभसूरि के शिष्य और प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक प्रद्युम्नसूरि ने इसका संशोधन किया था। उदयप्रभसूरि ने आरम्भसिद्धि नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ की भी रचना की । इन्हीं के द्वारा ४६ गाथाओं में रचित शब्दब्रह्मोल्लास नामक एक अपूर्ण ग्रन्थ भी मिलता है जो पाटण के खेतरवसही भण्डार में संरक्षित है । वस्तुपाल का गिरनार शिलालेख इन्हीं की कृति है । देवेन्द्रसूरि
ये मध्ययुग में नागेन्द्रगच्छ की द्वितीय शाखा के आदिम आचार्य वीरसूरि की परम्परा में हुए धनेश्वरसूरि के शिष्य और विजयसिंहसूरि के कनिष्ठ गुरुभ्राता थे। इनके द्वारा रचित एकमात्र कृति है चन्द्रप्रभचरित", जो वि० सं० १२६४ की रचना है । संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में ५३२५ श्लोक हैं । इनके बारे में विशेष विवरण नहीं मिलता ।
वर्धमानसूरि
जैसा कि लेख के प्रारम्भ में हम देख चुके हैं ये वीरसूरि की परम्परा में हुए धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और विजयसिंहसूरि के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित वासुपूज्यचरित' ( रचनाकाल वि० सं० १२९६ ) १२वें तीर्थंकर पर संस्कृत भाषा में उपलब्ध एकमात्र काव्य है। इसमें ५४६४ श्लोक हैं और यह सरल भाषा में है । ग्रन्थ के अन्त में २६ श्लोकों की लम्बी प्रशस्ति" के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने अपनी विस्तृत गुर्वावली के साथ-साथ रचना - काल और रचना - स्थान का भी उल्लेख किया है जिसका इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्व है।
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