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१४ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९५
असमर्थता आदि भावों का सहज रूपांकन हुआ है। अन्य बिम्ब का उदाहरण इस प्रकार है - जगत्स्तुत्य प्रभु श्री ऋषभदेव (२) भवजल का एकमात्र अवलम्ब प्रभु-१, प्रभु के अनुपम रूप-१३, काम परीषह में मन्दरपर्वत के समान भगवान की स्थिरता-१५, अपूर्व दीपक-१७, १८ आदि ।
कलागत बिम्बों में अलंकार-बिम्बों की रसनीय-चारुता उत्कृष्ट है। उपमानों के प्रयोगक्रम में बालक द्वारा चन्द्रबिम्ब-ग्रहण के लिए प्रयास-३, मृगोमृगेन्द्र-५, सूर्य अन्धकार-७, कोकिल-६, कमल-६, जलनिधि-११, आदि उपन्यस्त
६. रमणीयता एवं आलादकता.- ये तत्त्व एक श्रेष्ठ काव्य के प्राणस्वरूप होते हैं। स्तुति-काव्य श्रेष्ठ काव्य है। भक्तामर का प्रारम्भ ही रमणीयता के धरातल पर होता है। आलादकता आद्यन्त विद्यमान हैं।
७. रसनीयता - स्तुति-काव्य में रस का साम्राज्य होता है। विवेच्य स्तोत्र में भक्तिरस उपचित है। वीर, अद्भुत एवं शान्तरस की छटा चर्व्य है। अपनी हृस्वता, प्रभु-पाद-पदमों में पूर्ण समर्पण और विगलित हृदय से उनके गुणों का वर्णन भक्तिरस के उदाहरण हैं |
भगवद्विभूतियों के वर्णन में वीररस का सौन्दर्य आस्वाद्य है। श्लोक संख्या ३१ में भगवान् ऋषभदेव का चक्रवर्तीत्व रूप में निरूपण वीररस का उत्कृष्ट उदाहरण है। कामपरीक्षह के आने पर ऋषभ भगवान का मेरुवत् अडोल रहना, वीरत्व या संयमवीर का चूड़ान्त निदर्शन है६ |
भगवान के ऐश्वर्य-वर्णन में अद्भुत रस का सौन्दर्य आस्वाद्य है ।
सांसारिक दुःख या निर्वेद शान्तरस के स्थाई भाव हैं । भक्तामर स्तोत्र का मूल उद्गम कारण सांसारिक दुःख ही है, अतएव इसमें शान्तरस का प्राधान्य
८. मुक्तात्मकता – स्तुति-काव्य का यह प्रमुख वैशिष्ट्य है। इसमें प्रत्येक श्लोक रसनीयता एवं आस्वाद्यता की दृष्टि से पूर्वापर स्वतन्त्र होते हैं। अग्निपुराणकार के अनुसार जिनमें अर्थद्योतन की स्वतः शक्ति हो उसे मुक्तक कहते हैं - मुक्तक श्लोकश्कैश्चमत्कार क्षम रसताम् । कविराज विश्वनाथ ने अन्य पद्य निरपेक्ष या स्वतन्त्र काव्य को मुक्तक माना है - छंदो बुद्धपदं पद्यं तेन मुक्तेन मुक्तकम् | एक ही छन्द में वाक्यार्थ की समाप्ति मुक्तक है | उदविन्यस्त लक्षण सन्दर्भ में विचार करने पर प्रतीत होता है कि भक्तामर स्तोत्र का प्रत्येक श्लोक रसबोधक एवं अर्थद्योतन में समर्थ है। अशोक तरुतवलासीन ऋषभदेव का सौन्दर्य द्रष्टव्य है -
उच्चैरशोकतर संश्रितमुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
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