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भक्तामरस्तोत्र : एक अध्ययन : १७
जो गुण है उसे लालित्य या चारुता कहते हैं। भक्तामर में इसका चर्वण अनेक स्थलों पर होता है। भगवान का रूप किसके लिए मनोहारी नहीं है। वह सृष्टि के सम्पूर्ण जीवों के नेत्रों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। ऋषभदेव के वल्गुमुख-लावण्य के समक्ष सुन्दरता के सम्पूर्ण उपमान हस्व हो चुके हैं। जो आँखें उस रूप्यरूप का दर्शन एक बार भी कर लेती हैं उनकी दर्शन-यात्रा सदा के लिए स्थगित हो जाती है
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनोहरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ।।
गोपियों के स्तव्य भगवान श्रीकृष्ण के त्रैलोक्य सौभगरूप पर कौन आसक्त नहीं हो जाता
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त्रैलोक्य सौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद्गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्य विभ्रन् ।।
२. उदात्त
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सत्य और शिव का जहाँ भी अभिव्यंजन हो उसे उदात्त कहते हैं । भव्यता, विराटता, महनीयता, परात्परता आदि गुण इसी में समाहित हैं। केवल ललित से सौन्दर्य पूर्ण नहीं होता बल्कि ललित और उदात्त जहाँ दोनों एकत्रित होते हैं वही सौन्दर्य की प्रसवभूमि बन जाती है । भक्तामर में ललित के साथ उदात्त का सौन्दर्य रम्य है। भगवान के महनीय - ऐश्वर्य का वर्णन उदात्त के अन्तर्गत है ।
३. असीम का सौन्दर्य भक्त अपने भावों एवं शब्दों के माध्यम से किसी अनन्तसत्ता को पकड़ना चाहता है, जो सुख हास में सहायक हो सके। भक्तामर में अनन्त का सौन्दर्य निखरकर जीवित प्राणी गद्गद् हो जाता है। स्तोता मानव-देह में ही आदि रूप का संधान कर लेता है जो लोक में उपमानातीत बन जाता है । मृत्यु जय भी उसी के यहाँ जाकर सम्भव होता है।
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४. स्तुति का लक्ष्य स्तुति से क्या लाभ? किस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भक्त स्तुति करता है? स्तुति का चरम लक्ष्य निजस्वरूप अथवा प्रभुपद की प्राप्ति है। दृश्य जगत् का निषेध कर भक्त अन्त में अपना भी निषेध कर देता है। अपने अहं का विलय कर प्रभुमय बन जाता है। पितामह भीष्म की यह दशा द्रष्टव्य है .
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प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं
समधिगतोऽस्मि विधूतमेदमोहः ५१ । ।
स्तोता को प्रथम लाभ तो यह होता है कि कोई समर्थ उसका हाथ थाम लेता है। समर्थ को प्राप्तकर स्वयं भक्त समर्थवान् बन जाता है। पापविनाश, भयमुक्ति, सांसारिक लाभ, युद्ध-विजय*५, वडवाग्नि
भवसन्तति एवं तम-नाश
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