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भक्तामरस्तोत्र : एक अध्ययन : १५
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति।। एक-एक पद्य भक्त-हृदय-सागर में निविष्ट अनन्त भावरत्नों की राशि को उद्घाटित करने में समर्थ है। अनुपमा जननी के अनुपम पुत्र की महनीयता का अवलोकन --
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ।। ६. संगीतात्मकता -.. गीत-गंगा का उदय हृदय के समत्व धरातल से होता है। भक्त या स्तोता को जब किसी कारणवशात् प्रभु की स्मृति आती है या स्वयं स्मरण करता है तो उसका हृत्प्रदेश चमत्कृत हो उठता है, भावों की तरंगिनी तरंगायित होने लगती है, बाह्य शब्द-संसार भी साथ देने को तैयार हो जाता है
संगीतात्मकता की प्रवाहिणी प्रवाहित होने लगती है जो इतनी समर्थ और सशक्त होती है कि भक्त उसमें बह ही जाते हैं संसार का भी कहीं पता नहीं रहता है। भक्तामर के प्रत्येक चरण में लयात्मकता, गेयता संगीतात्मकता विद्यमान
है।
१०. अलंकार विन्यास -- स्तोता अपनी भावनाओं को अलंकारों के माध्यम से सशक्त रूप से अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है। अन्य काव्यों की तुलना में स्तोत्र-साहित्य में अलंकार-प्रयोग का प्राचुर्य होता है। भक्तामर स्तोत्र में उपमा, परिकर, अर्थापत्ति, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक एवं उदात्त आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है -
(क ) उपमा –जहाँ उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य स्थापित किया जाय वहाँ उपमा अलंकार होता है। भक्तामर-स्तोत्र में अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग हुआ है --
प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगोमृगेन्द्र
नाभ्येति किं निजशिशो परिपालनार्थम् ।। __ यहाँ भक्त की उपमा मृगी से की गयी है। यद्यपि सिंह सामने होता है, अपनी असमर्थता का ज्ञान भी उसे होता है लेकिन बच्चे के साथ अतिशय प्रेम के कारण सिंह के सामने होती है, उसी प्रकार भक्त अपनी अज्ञानता से परिचित होते हुए भी स्तुति में प्रवृत्त होता है। अन्य उदाहरण --
सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्।
प्रात्यानमा
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