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१० : श्रमण जुलाई-सितम्बर/१९९५
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं,
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ।। २. गुणसमुद्र - वह अनेक गुण रत्नों की खनि है। गुणसमुद्र, गुणशशांक, परमपुरुष, परमप्रकाशक आदि अनन्तानन्त गुण उसमें समाहित हैं। उसके गुणों का गायन वृहस्पति भी नहीं कर सकते हैं :
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांककान्तान्,
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया ।। सरस्वती भी नील-पर्वत के बराबर काजल-स्याही समुद्ररूपी पात्र में डालकर कल्पवृक्षरूपी लेखनी से उसके गुणों को लिखने में पार नहीं पा सकती हैं। शिवमहिम्नस्तोत्र की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे, सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।। लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं,
तदपि तव गुणानामीश ! पारं न याति ।। वह सभी गुणों का आश्रय है।
३. श्रेष्ठता – स्तुति-काव्य में स्तव्य की श्रेष्ठता का प्रतिपादन मुख्य रूप से होता है। रूप, गुण आदि में वह त्रैलोक्य में श्रेष्ठ है। आत्मिक और शारीरिक उभयविध सौन्दर्य की खानि है। उपास्य इतना सुन्दर होता है कि आँखें उसका एक बार दर्शन कर लेने के बाद अन्यत्र कुछ देखना ही नहीं चाहती हैं। इन्द्रियाँ विरमित हो जाती हैं, मन स्थिर हो जाता है उसके त्रिभुवनमोहन रूप को निरखकर। पितामह भीष्म का स्तव्य कितना सुन्दर है :
त्रिभुवनकमन तमालवण
रविकरगौरवाम्बरं दधाने। वपुरलककुलावृताननाब्ज
_ विजयसखे इतिरस्तु में अनवधा२।। वह प्रभु अनिमेषावलोकनीय है : दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरघुति-दुग्धसिन्धोः ।
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ? वह रूप का अन्तिम प्रतिमान होता है -
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति । वह रम्यता का रम्य सिन्धु है। देव, मनुष्य और नागकुमारों के नेत्र को आकृष्ट करने वाले त्रैलोक्यसौभग मुख के सामने बेचारे चन्द्रमा की क्या स्थिति?
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