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श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १९८२
जाती है, फिर भी जैनों ने जम्बूदीप आदि में जो ऐरावत, महाविदेह क्षेत्रों आदि की कल्पना की है वह आधुनिक भूगोल से अधिक संगत नहीं बैठती है। वास्तविकता यह है कि प्राचीन भूगोल जो जैन, बौद्ध व हिन्दुओं में लगभग समान रहा है, उसकी सामान्य निरीक्षणों के आधार पर ही कल्पना की गई थी, फिर भी उसे पूर्णतः असत्य नहीं कहा जा सकता।
आज हमें यह सिद्ध करना है कि विज्ञान धार्मिक आस्थाओं का संहारक नहीं पोषक भी हो सकता है। आज यह दायित्व उन वैज्ञानिकों का एवं उन धार्मिकों का है, जो विज्ञान व धर्म को परस्पर विरोधी मान बैठे हैं, उन्हें यह दिखाना होगा कि विज्ञान व धर्म एक दूसरे के संहारक नहीं, अपित पोषक हैं। यह सत्य है कि धर्म और दर्शन के क्षेत्र में कुछ ऐसी अवधारणाएँ हैं जो वैज्ञानिक ज्ञान के कारण ध्वस्त हो चुकी है, लेकिन इस सम्बन्ध में हमें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम तो हमें यह निश्चित करना होगा कि धर्म का सम्बन्ध केवल मानवीय जीवन मूल्यों से है, खगोल के वे तथ्य जो आज वैज्ञानिक अवधारणा के विरोध में है, उनका धर्म व दर्शन से कोई सीधा संबंध नही है। अतः उनके अवैज्ञानिक सिद्ध होने पर भी धर्म अवैज्ञानिक सिद्ध नहीं होता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि धर्म के नाम पर जो अनेक मान्यतायें आरोपित कर दी गयी हैं वे सब धर्म का अनिवार्य अंग नहीं है। अनेक तथ्य ऐसे हैं जो केवल लोक व्यवहार के कारण धर्म से जुड़ गये हैं।
आज उनके यर्थाथ स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। भरतक्षेत्र कितना लम्बा चौड़ा है, मेरु पर्वत की ऊंचाई क्या है ? सूर्य व चन्द्र की गति क्या है ? उनमें ऊपर कौन है आदि ? ऐसे अनेक प्रश्न है जिनका धर्म व साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। हम देखते हैं कि न केवल
जैन परम्परा में अपितु बौद्ध व ब्राह्मण परम्परा में भी ये मान्यतायें समान रूप से प्रचलित रही हैं। एक तथ्य और हमें समझ लेना होगा वह यह कि तीर्थकर या आप्त पुरुष केवल हमारे बंधन व मुक्ति के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हैं। वे मनुष्य की नैतिक कमियों को इंगित करके कह मार्ग बताते हैं जिससे नैतिक कमजोरियों पर या वासनामय जीवन पर विजय पायी जा सके। उनके उपदेशों का मुख्य संबंध व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास, सदाचार तथा सामाजिक जीवन में शान्ति व सहः अस्तित्व के मूल्यों पर बल देने के लिए होता है। अतः सर्वज्ञ के नाम पर कही जाने वाली सभी मान्यतायें सर्वज्ञप्रणीत है, ऐसा नहीं है। कालक्रम में ऐसी अनेक मान्यताएं। आयी जिन्हें बाद में सर्वज्ञ प्रणीत कहा गया। जैन धर्म में खगोल व भूगोल की मान्यतायें भी किसी अंश में इसी प्रकार की है। पुनः विज्ञान कभी अपनी अंतिमता का दावा नहीं करता है। अतः कल तक जो अवैज्ञानिक कहा जाता था, वह नवीन वैज्ञानिक खोजों से सत्य सिद्ध हो सकता है। आज न तो विज्ञान से भयभीत होने की आवश्यकता है और न उसे नकारने की। आवश्यकता है विज्ञान और अध्यात्म के रिश्ते के सही मूल्यांकन की।
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___Jam निदेशक, माशलहाथ शोधपीठ, वाराणसी-use Only
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