Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 20
________________ R श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १ (बोमपास, सी.एच., फकलोर ऑफ संथाल परगना) । पर्वत यात्रा, गिरि यात्रा, नदी यात्रा और उद्यान यात्रा के उल्लेख मिलते हैं, जिससे पता लगता है कि. लोग पर्वत, गिरि, नदी तट और बाग-बगीचों में जाकर खाते-पीते, नाचते-गाते और मौज-मजा किया करते थे। तात्पर्य यह कि भारतीय प्रागैतिहासिक समाज का जीवन सुखद और आनन्दमय था उलझनें उसमें नहीं थीं, रुकावटें नहीं थीं, सब लोग अपना-अपना कर्तव्य-पालन करते दया-धर्म को पालते, दानशीलता एवं उदारवृत्ति रखते, मजहब का आग्रह नहीं था, एक-दूस को पीछे धकेल कर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति नहीं थी। ऐसी हालत में आश्चर्य नहीं कि वैदिक आर्यों ने "जीवमं शरदः शतम्" (हम सौ बरस जीयें) का स्वर उद्घोषित किया। सम्भवतय नदियों एवं पर्वतों द्वारा जन्य प्राकृतिक सुषमा से ओत-प्रोत इस देश में हमारे ऋषि-मुनियों । चिन्तन-प्रधान संस्कृति को जन्म दिया। उन्होंने अपने गम्भीर चिन्तन, मनन और निदिध्यास द्वारा रहस्यपूर्ण सृष्टि के अनेक रहस्यों, भेदों और मर्मों का उदघाटन कर जीवन के सामाजिव मूल्यों की परंपरा स्थापित की। शक, कुषाण, हूण आदि कितनी ही जातियों ने समय-समय पर इस देश में प्रवेश किया चीनी, यूनानी, ईरानी, तुर्की, अफगानी आदि सभ्यताओं से भारत ने टक्कर ली। तमिल, तेलग कन्नड, गोंडी (बुन्देलखंड के आस-पास बोली जाने वाली), आदि द्राविड़ी भाषाओं तथ दक्षिण-पूर्व एशियाई (जिनका कभी उत्तर-पूर्वी भारत और हिन्द-चीन में प्राधान्य था) परिवार के अन्तर्गत आने वाली मुंडा ( या कोल) और मोन-ख्मेर (अंशतः असम में बोली जाने वाली आदि बोलियां भारत की सभ्यता और संस्कृति को प्रभावित किये बिना न रहीं। इन बोलिये तथा अन्य बोलियों के कितने ही शब्द-समूह ऐसे हैं जो आगे चलकर भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंग बन गये। कुछ उदाहरण :(अ) कदली, नारिकेल, तांबूल, अलाबू, शाल्मली आदि शब्द दक्षिण-पूर्व एशियाई बोलियों वे शब्द हैं, जिस बोली को प्राग-आर्य लोग इस्तेमाल करते थे। (आ) हनुमन्द ( हनुमान) : तमिल के "अण-मन्ति" शब्द से व्युत्पन्न। ___ ऋग्वेद (1086 ) में वृषा-कपि के रूप में, संस्कृत रूप "हनुमन्त"। (इ) स्वस्तिक :- यह परिरूप क्रीट, कैपेडोसिआ, ट्रॉय, लिफआनिया आदि स्थानों में भी पार्क जाता है। कुछ लोग इसे सौर विष्णु के चक्र का संक्षिप्त रूप मानते हैं - इसके चार आ से सूर्य के गमनागमन का मार्ग सूचित होता है। सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेता जनरल कनिंघम में इसे लिपि में अंकित सु+अस्ति (स्वस्ति) का द्योतक माना है। मूल रूप से लिथुआनिया-वासी साओ पाउलो (ब्राजिल) की मेरी शिष्या कुमारी गुलबिस इलोना में मुझे बताया कि इस चिह्न को अग्नि का क्रॉस माना गया है जो प्रकाश, अग्नि, जीका स्वास्थ्य एवं समृद्धि का सूचक है। लिथुआनिया के लोकगीतों में इसे आकाश का लुहार मानकर धान्य को पकाने वाला और दानवों को भगानेवाला कहा है। इससे जान पड़ता। कि स्वस्तिक का चिह्न अपने मूल रुप में प्राकृतिक शक्तियों से जुड़ा हुआ था। जनजातियां इसे दिव्य मानकर इससे प्रेरणा प्राप्त किया करती थीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org M AHES

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