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श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १
जैनदर्शन में निरूपित प्रत्यक्ष-लक्षण को क्रमिक विकास की दृष्टि से दो धाराओं में रखा जे सकता है - 1. प्राचीन आगमिक धारा एवं 2. प्रमाण-व्यवस्थायुगीनधारा। प्राचीन आगमिका धारा के अनुसार इन्द्रिय, मन आदि की सहायता के बिना आत्मा में स्वतः ज्ञानावरण के क्षय के क्षयोपशम से जो ज्ञान प्रकट होता है वह प्रत्यक्ष है । इन्द्रियादि की सहायता से होने वाला ज्ञान परोक्ष है। द्वितीयधारा के दार्शनिकों ने जैनेतर दार्शनिकों के साथ प्रमाण चर्चा में भाग लेने के लिए इन्द्रिय एवं मन द्वारा होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर उसे प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में स्थापित किया।52 पारमार्थिक प्रत्यक्ष के रूप में मात्र-आत्म सापेक्ष ज्ञान को
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पारमार्थिक एवं सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में समान रूप से लागू होने वाले प्रत्यक्ष-लक्षण का प्रतिपादन करते हुए समस्त जैन दार्शनिक एकमत से विशद या स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं।54 वह विशद ज्ञान प्रमाण होने से स्व एवं अर्थ का निश्चायक तो होता ही है। प्रत्यक्ष में विशदता की व्याख्या करते हुए भट्ट अकलंक अनुमान आदि परोक्ष प्रमाणों की अपेक्षा अधिक प्रकाशकता को ही विशदता मानते है, किन्तु विशदता की यह व्याख्या तुलनात्मक दृष्टिकोण को लिए हुए हैं। अनुमान आदि प्रमाणों का ज्ञान नहीं हो तब तक प्रत्यक्ष की विशदता को नहीं जाना जा सकता। इस प्रकार प्रत्यक्ष-लक्षण में निरूपित विशदता की व्याख्या अनुमानाद्याश्रित होने से दोषपूर्ण है। मणिक्यनन्दी ने ज्ञानान्तर के व्यवधान से रहित विशेष रूपेण प्रकाशकता को विशदता कहा है। आचार्य हेमचन्द्र ने विशदता को प्रकट करने वाली एक नवीन विशेषता का प्रतिपादन किया है और वह है - इदन्तया प्रतिभास। हम स्मृति रहित इदन्तया प्रतिभास को प्रत्यक्ष कह सकते हैं, स्मृतियुक्त इदन्तया प्रतिभास प्रत्यभिज्ञान में भी हो सकता है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में अवग्रह एवं ईहाज्ञान में इदन्तया प्रतिभास तो होता है किन्तु निश्चयात्मकता नहीं होती। जैन दार्शनिक निश्चयात्मकता के बिना किसी ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं, तथापि आगम-दृष्टि से मतिज्ञान के भेदों में अवग्रह एवं ईहा का समावेश होने से उन्हें प्रमाण मान लिया गया है।
बौद्ध दार्शनिकों ने जैन प्रत्यक्ष-लक्षण का खण्डन नहीं किया किन्तु उसके विषय सामान्यविशेषात्मक का शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में विस्तृत खण्डन कर स्वलक्षण अर्थ का स्थापन किया है।58 मूल रूप से स्फुटता या विशदता का स्वीकार दोनों दर्शनों में है। दूसरी बात यह है कि सामान्यविशेषात्मक अर्थ का खण्डन कर बौद्ध दार्शनिक परोक्ष रूप से जैन प्रमाण-व्यवस्था का भी खण्डन कर देते हैं।
शब्दयोजना रहित शद्ध प्रत्यक्ष की दृष्टि से विचार करने पर बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष समीचीन प्रतीत होता है किन्तु प्रमाण द्वारा अर्थक्रिया में प्रवृत्ति या हेयोपादेय के ज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर वह सर्वथा अनुपयोगी एवं अव्यवहार्य प्रतीत होता है तथा जैन सम्मत सविकल्पक प्रत्यक्ष उपयोगी एवं व्यवहार्य प्रतीत होता है। बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष इसलिए भी अव्यवहार्य एवं काल्पनिक है क्योंकि उसका विषय स्थूल एवं स्थिर दृष्टिगोचर होने
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