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श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १९८२
सन्दर्भ-ग्रन्थ
1. इस सम्बन्ध में देखिए मेरा लेख : क्षेत्रज्ञ शब्द के विविध प्राकृत रूपों की कथा और उसका
अर्धमागधी रूपान्तर : श्रमण, वाराणसी, अक्टूबर-दिसम्बर, 1990। 2. आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध और ऋषिभाषितानि में इस शब्द का प्रयोग नहीं मिला है। 3. देखिए--- आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध (म.जै. वि.संस्करण), सूत्र 32, 79, 88, 104,
109, 132, 176, 209, 210 और पादटिप्पणों के पाठान्तर, सूत्रकृतांग ( म.ज.वि.संस्करण), सूत्र-1. 354, 619 तथा II. 639 से 643 और 680 और
पादटिप्पणों के पाठान्तर। 4. मेरी पुस्तक-- "प्राचीन अर्धमागधी की खोज में" (1991-1992 ) में छपे क्षेत्रज्ञ शब्द का
अर्धमागधी रूप' नामक लेख भी देखा जा सकता है। 5. क्रमिक विकास की दृष्टि से 'क्षेत्रज्ञ के विविध प्राकृत रूपों को इस क्रम में रखा जा सकता
6. देखिए-- म.ज.वि., आगमोदय, जैन विश्वभारती और शुब्रिग महोदय के आचारांग के
संस्करण।
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