Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 51
________________ पूर्णिमागच्छ - प्रधानशाखा अपरनाम ढंढेरियाशाखा का संक्षिप्त इतिहास - शिवप्रसाद चन्द्रकल के आचार्य जयसिंहसरि के शिष्य आचार्य चन्द्रप्रभसरि द्वारा वि.सं. 1149/ई. सन् 1093 अथवा वि.सं. 1159/ई. सन् 1103 में प्रवर्तित पूर्णिमागच्छ की कई अवान्तर शाखायें समय-समय पर अस्तित्व में आयीं, यथा प्रधानशाखा या ढंदेरियाशाखा, कच्छोलीवालशाखा, भीमपल्लीयाशाखा, सार्धपूर्णिमाशाखा, भृगुकच्छीयाशाखा, वटपद्रीयाशाखा आदि। इन शाखाओं में प्रधानशाखा या ढंढेरियाशाखा सबसे प्राचीन मानी जाती है। आचार्य चन्द्रप्रभसरि के प्रशिष्य समुद्रघोषसूरि के द्वितीय शिष्य सुरप्रभसूरि इस शाखा के प्रथम आचार्य माने गये हैं। इस शाखा में आचार्य जयसिंहसूरि, जयप्रभसूरि, भुवनप्रभसूरि, यशस्तिलकसूरि, कमलप्रभसूरि, पुण्यप्रभसूरि, महिमाप्रभसूरि, ललितप्रभसूरि आदि कई प्रखर विद्वान् आचार्य हो पूर्णिमागच्छ की प्रधानशाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इस शाखा के मुनिजनों द्वारा रची गयी कृतियों की प्रशस्तियां तथा बड़ी संख्या में दूसरों से लिखवायी गयी अथवा स्वयं उनके दरा की गयी प्रतिलिपियों की प्रशस्तियां, पट्टावली, प्रतिमालेख आदि उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए यहां सर्वप्रथम ग्रन्थ एवं पुस्तक प्रशस्तियों तत्पश्चात् पट्टावली और अन्त में अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। पूर्णिमागच्छ की इस शाखा से सम्बद्ध लगभग 57 ग्रन्थप्रशस्तियां और पुस्तकप्रशस्तियां या प्रतिलेखनप्रशस्तियां मिलती हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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