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श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १९६२
करते हैं। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनादिकाल से प्रवाहमान हैं। उसमें स्वाभाविक रूप से ही उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया चलती रहती है, किन्तु उसका कोई कर्त्ता नहीं है। उनके अनुसार ये सब प्राकृतिक घटनायें है। संसार उत्पत्ति और विनाश से युक्त होकर भी अपने प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। उनका कहना है कि इस जगत् में सभी कुछ सुन्दर और शुभ नहीं है। बहुत कुछ असुन्दर, अशुभ और दुःख रूप भी है। इसलिए जिस जगत् में दुःख और पीड़ायें हों, उसका कर्त्ता परम कणिक एवं बुद्धिमान ईश्वर नहीं हो सकता । यदि ईश्वर को इस सृष्टि के लिए प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों पर निर्भर माना जाय या उसको इसकी रचना के लिए पृथ्वी आदि महाभूतों या परमाणुओं आदि का सहारा लेना आवश्यक हो, तो फिर उसका ईश्वरत्व नहीं रह जाता है। जो सृष्टि की रचना के लिए अन्य तथ्यों पर निर्भर रहता है, वह ईश्वर नहीं हो सकता। जैन आचार्यों ने ईश्वरवाद की समीक्षा करते हुए ऐसे अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में हमारा उद्देश्य उन सभी तर्कों को क्रमबद्ध रूप में पुनः उपस्थित करना है। इसी उद्देश्य से इस शोध-प्रबन्ध को निम्न अध्यायों में विभक्त करके कालक्रम में जैन चिन्तकों के विचारों का संकलन किया है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में प्रथम अध्याय में हमने मुख्य रूप से जैन धर्म की दार्शनिक विशेषताओं का उल्लेख किया है। शोध प्रबन्ध का दूसरा अध्याय जैन आगम साहित्य में ईश्वरवाद की समीक्षा से सम्बन्धित है। जैन आगमों में प्रमुख रूप से सूत्रकृतांग और प्रश्नव्याकरण में ईश्वरवाद की समीक्षा की गयी है। यद्यपि यह समीक्षा अतिसंक्षिप्त ही है और इसमें ठोस तर्कों का अभाव परिलक्षित होता है। तृतीय अध्याय में जैन दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध ईश्वरवाद की समीक्षा का संकलन किया गया है। जैन दार्शनिकों में समन्तभद्र, सिद्धसेन, जिनभद्र, हरिभद्र, अकलंक, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन दार्शनिकों
विपुल मात्रा में दार्शनिक साहित्य का सृजन किया है और उसमें उन्होंने ईश्वरवाद की समीक्षा भी की है। यद्यपि ईश्वरवाद की समीक्षा के बहुत से तर्क सभी दार्शनिकों की कृतियों में समान रूप में ही पाये जाते हैं फिर भी ईश्वरवाद की समीक्षा के तार्किक विकास को समझने की दृष्टि से हमने अलग-अलग रूप में ही इन दार्शनिकों का विवरण प्रस्तुत किया है। चौथा अध्याय मध्यकालीन जैन दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध ईश्वरवाद की समीक्षा से सम्बन्धित है। इसमें हमने मुख्य रूप से 12वीं शताब्दी के पश्चात् के विचारकों को ही स्थान दिया है। इस युग में जैन आचार्यों द्वारा मरु-गुर्जर और हिन्दी भाषा में अधिकांश साहित्य निर्मित किया गया है, उसी को आधार बनाकर इस अध्याय में ईश्वरवाद सम्बन्धी विचारों का संकलन किया गया है। इस प्रकार हमने प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग के सभी प्रमुख जैन चिन्तकों के ईश्वरवाद सम्बन्धी विचारों को संकलित करने का प्रयत्न किया है। यद्यपि यह समग्र लेखन विवरणात्मक ही है, फिर भी इससे विभिन्न युगों में ईश्वरवाद के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों की क्या दृष्टि रही है, इसका अभिज्ञान हो जाता है। यद्यपि प्रारम्भ से ही जैन दार्शनिक ईश्वरवाद के विरोधी ही रहे, किन्तु उनका यह विरोध ईश्वर की अवधारणा की अपेक्षा ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व के विषय में ही अधिक रहा है। जैन दार्शनिक किसी वैयक्तिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं
करते, किन्तु सभी व्यक्तियों में प्रसुप्त परमात्म-तत्त्व उन्हें स्वीकार है । वे यह मानते हैं कि
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