Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 45
________________ डॉ. के. आर. चन्द्र इन तालिकाओं के अनुसार आचारांग और सूत्रकृतांग दोनों के प्रथम श्रुतस्कंध में परवर्ती स्प मिलते हैं जब कि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में दो प्राचीनतम रूप 'खेत्तन्न और 'खेतन्न भी मिलते है । पाठान्तरों के रूप में आचारांग की उपलब्ध प्रतियों में भी पुराना रूप नहीं मिलता है, जबकि सूत्रकृतांग के पाठान्तरों में 'खेत्तन्न और खेतन्न' पुराने रूप मिलते हैं। आचारांग की प्रतियों में खेदन्न 'खेदण्ण दो नये ही रूप मिलते हैं जो सूत्रकृतांग की प्रतियों में नहीं मिलते हैं। ताडपत्र की या कागज की हरेक प्रत में इस शब्द के लगभग सभी प्राचीन या परवर्ती प्राकृत रूप मिलते हैं। प्राचीन प्रतों में प्राचीन रूप ही मिलता हो या परवर्ती प्रतों में परवर्ती रूप ही मिलता हो ऐसा भी नहीं है। अतः अर्धमागधी ग्रन्थों के सम्पादन के समय भाषिक दृष्टि से किस प्रत को आदर्श माना जाय ? ऐसी अवस्था में सम्पादक को अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग करके प्राकृत के प्राचीन रूपों को अर्थात् मूल अर्धमागधी रूपों को स्वीकार करना अनिवार्य बन जाता है। हमारी दृष्टि से 'खेत्तन्न' और 'खेतन्न' ही प्राचीन रूप है अतः आचारांग और सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन ग्रंथों में इन्हें ही स्वीकार किया जाना चाहिए और अन्य रुप पाठान्तरों में रखे जाने चाहिए। खेत्तन्न, खेतन्न, खेदन्न, खेदण्ण, खेयण्ण, खेअण्ण । खेत्तण्ण और खेतण्ण भी परवर्ती रूप हैं। आश्चर्य की बात यह है कि आचारांग और सत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंधों जैसे प्राचीनतम अर्धमागधी अंशों में (अर्थात् उनकी हस्तप्रतों में) 'क्षेत्रज्ञ शब्द का प्राचीनतम प्राकृत रूप 'खेत्तन्न या 'खेतन्न नहीं मिल रहा है जबकि ये दोनों रुप सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध (जो परवर्ती रचना मानी गयी है) की ताडपत्र और कागज दोनों प्रकार की प्रतियों में मिल रहा है। इससे भी अधिक आश्चर्य यह है कि प्राचीन रूप मिलते हुए भी मुद्रित ग्रन्थों में किसी भी संपादक श्री ने उसे सर्वत्र स्वीकार नहीं किया है और 'खेयण्ण जैसा अति परवर्ती रूप भी स्वीकार कर लिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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