Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 43
________________ 'क्षेत्रज्ञ' शब्द का स्वीकार्य प्राचीनतम अर्धमागधी रूप - डॉ. के. आर. चन्द्र इस विषय का एक संशोधन लेख' पहले ही प्रकाशित हो चुका है, नयी सामग्री मिलने के कारण पुनः इस शब्द के प्राचीन प्राकृत रूप पर चर्चा की जा रही है। आचारांग, सूत्रकृतांग और ऋषिभाषितानि अर्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं। उनमें 'क्षेत्रज्ञ' शब्द के प्राकृत रूपों की क्या स्थिति है यह इस अध्ययन का विषय है। प्राचीन ग्रन्थों में प्राचीन प्राकृत रूप मिलता है या नहीं, हस्तप्रतों में कौन-कौन से रुप मिलते हैं, परवर्ती प्राकृत व्याकरण का इस शब्द के प्राकृत रूप पर क्या प्रभाव पड़ा और हस्तप्रतों में विविध प्राकृत रूपों की उपलब्धि के कारण सम्पादक महोदय ने जो जो रूप अपनाये वे भाषिक दृष्टि से उपयुक्त हैं या नहीं, इन सबका यहाँ पर विश्लेषण किया जा रहा है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में यह शब्द 16 बार मिलता है 8 बार खेत्तण्ण, 6 बार खेतण्ण और 2 बार खेयण्ण के रूप में 1 - सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध में यह 2 बार मिलता है 1 बार खेतण्ण और 1 बार खेयण के रूप में | सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में यह 10 बार मिलता है 3 बार खेयण्ण, 2 बार खेत्तण्ण, 2 बार खेतन्न, 1 बार खेतण्ण, 1 बार खेल्न और 1 बार खेयन्न के रूप में। इसे तालिका के रूप में इस प्रकार दिया जा सकता है : सूत्रकृतांग-1 आचारांग - 1 खेत्तण्ण ( 8 ) खेतण्ण (6) खेयण्ण (2) 16 बार खेतण्ण ( 1 ) खेयण्ण (1) Jain Education International -- 2 बार आचारांग और सूत्रकृतांग की हस्तप्रतों में इस शब्द के जो पाठान्तर मिलते हैं वे प्रतवार इस प्रकार हैं : For Private & Personal Use Only सूत्रकृतांग- II खेत्तण्ण (2) खेतण्ण (1) खेयण (3) खेत्तन्न (1) खेतन्न ( 2 ) खेतन्न ( 1 ) 10 बार www.jainelibrary.org

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