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. धर्म चन्द जैन
ले पदार्थ नहीं अपितु निरन्तर गतिशील एवं सूक्ष्म असाधारण स्वलक्षण अर्थ हैं, जिनका किसी भी पुरुष को प्रत्यक्ष होता हुआ दिखाई नहीं देता है। 'तत्रानेकार्थजन्यत्वात्', 'स्वार्थे सामान्यगोचरम्' आदि वाक्य स्पष्ट प्रतिपादन करते हैं कि अनेक स्वलक्षण मिलकर ही दृश्य झते हैं अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण की उत्पत्ति में कारण बनते हैं। अनेक स्वलक्षणों का समुदाय सामान्य है। सामान्य में इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है अतः उसे कथमपि निर्विकल्पक नहीं कहा जा सकता। अनुमान-प्रमाण
न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शनों के समान जैनदर्शन में अनुमान प्रमाण को प्रत्यक्ष के समान यथार्थ विषय का ग्राहक प्रतिपादित किया गया है, जबकि बौद्ध दर्शन में अनुमान-प्रमाण का विषय प्रत्यक्ष की भांति परमार्थसत् नहीं अपितु अवस्तुभूत एवं कल्पित सामान्यलक्षण है। अवस्तुभूत सामान्य लक्षण को विषय करने के कारण धर्मकीर्ति ने अनुमान प्रमाण को भ्रान्त ज्ञान कहा है। भ्रान्त होते हुए भी वे प्रमाता के अभिप्राय का अविसंवादक होने के कारण उसे प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार समस्त भ्रान्त ज्ञान प्रमाण नहीं होते, अपितु जो भ्रान्त ज्ञान अर्थक्रिया में अविसंवादक सिद्ध होता है वही अनुमान प्रमाण कहा गया है।०० अनुमान की प्रमाणता के लिए उनके द्वारा प्रदत्त मणिप्रभा एवं प्रदीपप्रभा का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। मणिप्रभा एवं प्रदीपप्रभा दोनों में मणिबुद्धि होना यद्यपि भ्रान्त ज्ञान है, तथापि मणिप्रभा की ओर दौड़ने थाले पुरुष को मणि की प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार जिस भ्रान्त ज्ञान से स्वलक्षण अर्थ की प्राप्ति होती है वह अविसंवादक होने से प्रमाण माना जाता है। । जैनदार्शनिकों के अनुसार बौद्ध सम्मत अनुमान-प्रमाण की अविसंवादकता सिद्ध नहीं है। विद्यानन्दि ने धर्मकीर्ति द्वारा प्रदत्त मणिप्रभा एवं प्रदीपप्रभा के दृष्टान्त का खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि मणिप्रभा से मणि की प्राप्ति रूप संवादकता को प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भिन्न प्रमाण मानना होगा क्योंकि मणिप्रभा में मणिबुद्धि होना भ्रान्तज्ञान है इसलिए वह प्रत्यक्ष महीं हो सकता। इसे अनुमान प्रमाण भी नहीं माना जा सकता क्योंकि मणिप्रभा दर्शन में लिंग और लिंगी के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है। लिंग एवं लिंगी का ज्ञान हुए बिना अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता।62
साधन से साध्य का ज्ञान होना अथवा लिंग से अनुमेय अर्थ का ज्ञान होना अनुमान है। अनुमान का यह सामान्यलक्षण जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शनों को समान रूप से मान्य है किन्तु बौद्धों से अनुमान प्रमाण को त्रिरूपलिंगजन्य माना है। जबकि जैनों ने इसका खण्डन करके एक रूप अविनाभावी हेतु से अनुमान को प्रमाण सिद्ध किया है। बौद्धमत में त्रिरूप हेतु के बिना कोई भी धान्तज्ञान अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूप त्रिरूपता सि सम्पन्न हेतु ही बौद्धमत में अनुमान को प्रमाण बनाता है। इसीलिए शान्तरक्षित एवं कमलशील ने त्रिस्पलिंग युक्त संवादक ज्ञान को अनुमान प्रमाण कहा है। 4 कमलशील कहते हैं के जो ज्ञान त्रिरूपलिंग से उत्पन्न होता है वह पारम्पर्येण स्वलक्षण वस्तु से प्रतिबद्ध होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only
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