Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 33
________________ डॉ. धर्म चन्द जैन बौद्ध भी मैत्रीपुत्रत्व हेतु को असद हेतु मानते हैं। वे लिंग का साध्य में स्वभ्मव-प्रतिबन्ध स्वीकार करते हैं। यह स्वभाव-प्रतिबन्ध ही जैन दर्शन में अविनाभाव है। बौत्रों के रूप्य-लक्षण का खण्डन करने वाले जैन दार्शनिकों में पात्रस्वामी अथवा पात्रकेसरी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने इसके लिए पृथक् रचना 'विलक्षणकदर्थन का निर्माण किया जो सम्प्रति अनुपलब्ध है, किन्तु बौद्ध नैयायिक शान्तरक्षित ने सत्त्वसंग्रह में पात्रस्वामी के निरसन को पूर्वपक्ष में रखा है। पात्रस्वामी की एक कारिका त्रैरुप्य-खण्डन के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है जिसे समस्त जैनदार्शनिकों ने अपनाया है एवं बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने भी उसे उद्धृत किया है, वह है - अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?12 इसका आशय है कि जिस हेतु में साध्य के साथ अन्यथानुपपन्नत्व ( अविनाभाव) है वहाँ त्रिरुपता का कोई प्रयोजन नहीं है तथा जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है उसमें भी विरूपता का प्रतिपादन निरर्थक है। वस्तुतः जैनदार्शनिकों का हेतु में त्रैरुप्य के सद्भाव से कोई विरोध नहीं है, अपितु त्रैरुप्य को हेतु का लक्षण मानने से विरोध है। वे विरूपता को हेतु का असाधारण लक्षण मानने को तैयार नहीं है क्योकि उसके अभाव में भी कृत्तिकोदय आदि हेतु मात्र अविनाभावित्व के कारण शकटोदय साध्य का ज्ञान करा देते हैं। इसके लिए जैन दार्शनिकों ने क्रमभाव एवं सहभाव के रूप में अविनाभाव को दो प्रकार का निरूपित किया हैं। 3 बौद्धों ने हेतु के तीन भेद प्रतिपादित किये हैं -- 1. स्वभाव 2. कार्य एवं 3. अनुपलब्धि। 4 बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत हेतु-भेद मौलिक है क्योंकि उन्होने स्वभाव एवं अनुपलब्धि को भी हेतु-भेदों में रखा है, जो उनके पूर्ववर्ती किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं होते हैं। मीमांसकों द्वारा पथक प्रमाण के रूप में प्रतिपादित अभाव का ज्ञान बौद्ध दार्शनिक उनुपलब्धि हेतु द्वारा करके उसका अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव कर लेते हैं। स्वभाव हेतु बौद्धदार्शनिकों का नया प्रतिपादन है, जिसे जैन दार्शनिकों ने भी अपनाया है। जैन दार्शनिकों के हेतु-भेद प्रतिपादन में बौद्धों के अतिरिक्त न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शनों का भी प्रभाव रहा। हेतु-भेदों को लेकर बौद्धदर्शनिकों से जैन दार्शनिकों का स्थूल मतभेद यह है कि बौद्ध दार्शनिक जहाँ स्वभाव एवं कार्य हेतु को विधिमाधक तथा अनुपलब्धि हेतु को निषेधसाधक के प्रतिपादित करते हैं, वहाँ जैन दार्शनिक समस्त हेतुओं को विधि एवं निषेधसाधक रूप में प्रस्तुत करते हैं। जैनदार्शनिकों ने बौद्ध मन्तव्य के विरुद्ध कारण, पूर्वचर, उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं का स्थापन किया है जो जैन दार्शनिकों की सांव्यवहारिक दृष्टि का परिचायक अधिक है, और साध्याविनाभाव रूप हेतु लक्षण की कठोर अनुपालना का कम। जैन हेतु-लक्षण के अनुसार हेतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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