Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 39
________________ | डॉ. धर्म चन्द जैन 37 22. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन भीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत प्रमाणं प्रमायां साधकतमम्। - प्रभाचन्द्र, न्यायकुमुदचन्द्र, भाग 1, पृ.48.10 एवं हेमचन्द्र, प्रमाणमीमांसावृत्ति 1.1.1 23. विद्यानन्दि, प्रमाणपरीक्षा, पृ.5, अष्टसहस्री, पृ.276.7 -24. अकलंक, अष्टशती, अष्टसहस्री, पृ. 175 25. मणिक्यनन्दी, परीक्षामुख 1.1 26. प्रभाचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग 1, पृ.169-173 27. तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन गतार्थत्वाद् व्यर्थमन्यद् विशेषणम् ।। विद्यानन्दि, तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक 1.10.78 28. ग्रहीष्यमाणग्रहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम्। - हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा 1.1.4 29. अकलंक, तत्त्वार्थवालिक, पृ. 56, 1.12 30. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थ ग्राहकं मतम्।। ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते।।, अकलंक, लघीयस्त्रय, 60 31. Critique of Indian Realism, p. 471 32. अविसंवादकं प्रमाणम् - अकलंक, अकलंकग्रन्थत्रयम्, पृ.8.10 33. प्रमाणान्तरबाधनं पूर्वापराऽविरोधश्चाविसंवादः । - अकलंकग्रन्थत्रयम्, पृ. 14 34. अविसंवादकत्वं च निर्णयायत्तम् तदभावेऽभावात् तद्भावे च भावात्। - अकलंकग्रन्थत्रयम्, पृ. 20.25 35. अकलंकग्रन्थत्रयम्, पृ.8 दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति 1.2, पृ.4, एवं जिनेन्द्रबुद्धि, प्रमाणसामुच्ययटीका प्रमाणसमुच्चय, पृ.6 सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः । - मणिक्यनन्दी, परीक्षामुख 4.1 38. दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चय 1.3 39. धर्मकीर्ति, न्यायबिन्दु 1.4 40. अथ के यं कल्पना नामजात्यादियोजना-दिङ्नाग, प्रकरणसमुच्चयवृति, 3 In "Dignag on Perception" by Massaki Hatlori 41. अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना। - धर्मकीर्ति, न्यायबिन्दु 1.5 42. धर्मकीति, प्रमाणवात्तिक 2.297 43. धर्मोत्तर, न्यायबिन्दुटीका, पृ.47, सूत्र 1.5 44. धर्मोत्तर, न्यायबिन्दुटीका, पृ. 48 सूत्र 1.5 45. धर्मोत्तर, न्यायबिन्दुटीका, पृ.48, सूत्र 1.5 46. मल्लवादी क्षमाश्रमण, द्वादशारनयचक्र (जम्बूविजय द्वारा संपादित) भाग-1, पृ.63 एवं पृ. 70-78 17. तत्रानेकार्थजन्यत्वात् स्वार्थे सामान्यगोचरम्। - दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चय, In "Dignaga on Perception". For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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