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t. धर्म चन्द जैन
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करते हैं वहाँ जैन दार्शनिकों ने अविनाभावलक्षण से ही समस्त हेत्वाभासों को फलित कर लिया है। बौद्ध एवं जैन दर्शन में हेत्वाभामों की पुष्टि में दिए गए उदाहरण एक दूसरे पर आक्षेप अवश्य करते हैं। हेत्वाभासों के उत्तरकालीन निरुपण में न्याय-वैशेषिक दार्शनिक भासर्वज्ञ की कृति न्यायसार का भी प्रभाव है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम-प्रमाण
जैनदार्शनिक परम्पग में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम की प्रमाणरूप में प्रतिष्ठा उसका बौद्ध प्रमाण-परम्परा से स्पष्ट पार्थक्य द्योतित करती है। बौद्ध दार्शनिक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को अज्ञातार्थज्ञापक नहीं होने के कारण अप्रमाण मानते हैं तथा आगम का अपोह द्वारा अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव कर लेते हैं। जैन दार्शनिकों ने स्मति आदि को प्रमाण स्प में प्रतिष्ठित करने हेतु अपनी पूरी शक्ति लगायी है।
बौद्ध दार्शनिकों ने स्मृति को, असत को विषय करने के कारण अर्थ से अनुत्पन्न होने के कारण, अनवस्था दोष की प्रसक्ति होने के कारण एवं विसंवादक होने के कारण प्रमाण नहीं माना है। उनका मंतव्य है कि स्मति को प्रमाण मानने पर इच्छा, द्वेष आदि को भी प्रमाण जानना होगा किन्तु जैनमतानुसार इच्छा, द्वेष आदि अप्रमाण हैं क्योंकि वे अविसंवादक एवं खानात्मक नहीं है। जैन-दर्शन में वही स्मति प्रमाण हैं जो अविसंवादक हैं, व्यवहार में उपयोगी है तथा जिसका फल प्रत्यभिज्ञान हैं। जैनदर्शन में स्मति प्रमाण का स्थापन करते हुए जैनदार्शनिक कहते हैं कि लिंग एवं लिंगी की स्मृति के बिना अनुमान प्रमाण प्रवृत्त नहीं हो सकता। ऐसा कोई दार्शनिक नहीं हो सकता जो स्मृति का प्रामाण्य स्वीकार किए बिना लिंग तरा लिंगी का ज्ञान कर सके। यह अवश्य है कि स्मति के समय प्रमाता के समक्ष अर्थ विद्यमान नहीं होता एवं स्मृति प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात अर्थ में वैशिष्ट्य भी नही लाती किन्तु स्मृति को स्व एवं अर्थ का प्रकाशक होने से, अर्थक्रिया में प्रवर्तक होने से, अविसंवादक व्यवहार का कारण होने से स्था व्यवसायात्मक ज्ञान रूप होने से प्रमाण माना जा सकता है। स्मृति को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित कर जैनदार्शनिकों ने 'प्रामाण्यं व्यवहागद्धि' कथन को चरितार्थ कर दिया है। वस्तुतः मारा समस्त व्यवहार स्मृति पर आधारित है। भाषा का प्रयोग, लेन-देन का व्यवहार आदि ही स्मति के बिना संभव नहीं है। यही नहीं स्मृति के अभाव में कोई व्यक्ति किसी निश्चित कार्य के लिए निश्चित समय पर प्रवृत्त भी नहीं हो सकता।
प्रत्यभिज्ञान को भी जैन दार्शनिक अविसंवादक, वास्तविक अर्थ का ग्राहक, स्व एवं अर्थ का निश्चायक तथा बाधक प्रमाण का अभाव होने से पृथक प्रमाण मानते हैं।89 प्रत्यभिज्ञान द्वारा न दार्शनिकों ने एकत्व, सादृश्य, विलक्षणता एवं प्रतियोगिता के ज्ञान का प्रकाशन स्वीकार ज्या है जो उपमान प्रमाण द्वारा संभव नहीं है। उपमान-प्रमाण से मात्र सादृश्य या जा-संज्ञि सम्बन्ध ही गृहीत होता है। प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष जैसा भासता है किन्तु प्रत्यक्ष से त्यभिज्ञान का यह अन्तर है कि प्रत्यभिज्ञान में स्मृति निहित रहती है, जबकि प्रत्यक्ष में स्मति
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