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श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १८६२
साध्य के अभाव में नहीं रहता है जबकि कारण, कार्य की उत्पत्ति न होने तक उसके अभाव में भी रह सकता है । पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं का प्रयोग निश्चित घटनाक्रम में उपयोगी है किन्तु पूर्ण तार्किक दृष्टि से उनकी हेतुता सिद्ध नहीं है । सहचर हेतु भी लोकव्यवहार के अतिरिक्त कोई तार्किक वैशिष्ट्य नहीं रखता । हेतु संख्या की अभिवृद्धि की ओर उन्मुखता ही जैनदर्शन में नये हेतुओं को जन्म देती रही ।
व्याप्ति के स्वरूप को लेकर जैन दार्शनिकों का बौद्धों से कोई मतभेद नहीं है । दोनों दर्शनों में अविनाभावनियम को व्याप्ति स्वीकार किया गया है। बौद्ध दर्शन में इसे स्वभाव - प्रतिबन्ध के रूप में भी निरूपित किया गया है। 76 बौद्ध दार्शनिकों ने व्याप्ति का निमित्त - तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को माना है 77 किन्तु लोकव्यवहाराभिमुख जैन दार्शनिक इन दोनों सम्बन्धों से व्याप्ति का होना स्वीकार नहीं करते हैं। जैनदार्शनिकों ने योग्यता सम्बन्ध से ही हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति प्रतिपादित की है 78 तथा उसे सहभावी एवं क्रमभावी अविनाभाव के रूप में विभक्त कर उसमें साध्य के गमक समस्त हेतुओं को समाहित कर लिया है, जो जैन दार्शनिकों की व्यापक एवं लौकिक व्यवहार की दृष्टि को स्पष्ट करता है ।
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प्रमाण को ज्ञानात्मक मानने वाले बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने वचनात्मक परार्थानुमान को उपचार से प्रमाण माना है। 79 बौद्ध दार्शनिक प्रायः हेतु एवं दृष्टान्त को परार्थानुमान का अवयव मानते हैं किन्तु धर्मकीर्ति ने विद्वानों के लिए केवल एक हेतु को ही परार्थानुमान का अवयव स्वीकार किया है। 80 जैन दार्शनिकों ने प्रतिपाद्य पुरुष की योग्यता के अनुरूप एक, दो एवं पाँच अवयवों का प्रतिपादन किया है। 81 अत्यधिक व्युत्पन्न पुरूषों के लिए धर्मकीर्ति की भांति केवल हेतु को, सामान्य व्युत्पन्न पुरुषों के लिए प्रतिज्ञा एवं हेतु को तथा मंदमति पुरुषों के लिए उदाहरण, उपनय एवं निगमन को मिलाकर पाँच अवयव स्वीकार किए गये हैं । 82 जैन दार्शनिकों ने प्रतिज्ञा या पक्षवचन को आवश्यक अवयव मानकर बौद्धमत का खण्डन किया है। बौद्धों के अनुसार हेतु का पक्ष में रहना अनिवार्य माना गया है, इसलिए वे संभवतः पक्ष का पृथक् कथन करना आवश्यक नहीं मानते हैं, जबकि जैन दार्शनिक हेतु का पक्ष में रहना आवश्यक नहीं मानते हैं इसलिए वे परार्थानुमान में पक्ष का कथन करना आवश्यक मानते हैं। दृष्टान्त के पृथक् कथन की बौद्ध एवं जैन दोनों आवश्यकता अनुभव नहीं करते हैं । बौद्धों ने हेतुलक्षण में ही दृष्टान्त का समावेश कर लिया है जबकि जैन दार्शनिक उसका हेतुलक्षण में समावेश नहीं करते हुए भी उसे पृथक् अवयव नहीं मानते हैं । दृष्टान्त के स्वरूप एवं भेदों में दोनों दर्शनों में वैमत्य नहीं है । साधर्म्य एवं वैधर्म्य भेद दोनों दर्शनों में समान रूप से स्वीकृत हैं। जैनदार्शनिकों ने दृष्टान्ताभास के भेदों में धर्मकीर्ति का अनुसरण करते हुए भी यथाप्रसंग बौद्धमत का खण्डन किया है।
जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शनों में असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास मान्य हैं। जैनदर्शन में अकलंक, मणिक्यनन्दी आदि ने अकिंचित्कर नामक चतुर्थ हेत्वाभास का भी प्रतिपादन किया है । 183 बौद्ध दार्शनिक जहाँ त्रैरूप्य के अभाव में तीन हेत्वाभासों का प्रतिपादन
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