Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ डॉ. जगदीशचन्द्र जैन चिमकीली, दिव (चमकना)] शक्तियों के दर्शन से आत्मविभोर हुए भारत के आर्यगण सौ शरद ऋतुएं पाकर सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए लालायित थे, तो उनमें इस संसार के प्रति उदासीन वृति की भावना क्यों जागत हुई ? अहिंसा एवं करुणा का उदय किन सामाजिक परिस्थितियों में हुआ ? आदि-आदि। इसका उत्तर है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर बदलती हुई परिस्थितियां जिनके अनुसार समय-समय पर मानव ने अपने आपको ढालने का प्रयत्न किया। कितनी अनुकूल परिस्थितियां थीं पहाड़ों और नदियों के इस देश में। उत्तर में हिमालय (हिम का प्रालय) प्रहरी के रूप में खड़ा हुआ है जो देवों के अधिदेव नीलकंठ शिवजी महाराज और पर्वत-कन्या पार्वती जी की अनुपम क्रीड़ाओं का स्थल रहा है। कल-कल करती हुई सिन्धु अर्थात् साधारण नदी, आगे चलकर नदी विशेष के अर्थ में प्रयुक्त) नदी का स्वर चारों देशाओं को गुंजित करता हुआ सुनाई दे रहा है। इस विशाल नदी की विशेषता इस बात से पलकती है कि इसके तट पर बसने वाले आर्यों के कबीले हिन्दू (सिंघ शब्द से) कहलाने लगे। ऋग्वेद के अंतर्गत नदी-स्तुति सूक्त (1075) में सिन्धु नदी को दौड़ने वाली, उपजाऊ, ण, घोड़ा, गौ, पिता, माता, संरक्षक, पहरेदार, पर्वत-कन्या आदि विशेषणों से संबोधित कर से घोड़ों, रथों, वस्त्रों, ऊन, सुवर्ण आदि से समृद्ध कहा गया है। सप्तसिन्धु ( आगे चलकर सात में से केवल पांच ही नदियां रह जाने के कारण पंजाब (यानि पंच+आब) नाम से संबोधित किये जाने वाले इस विशाल देश की अन्य प्रमुख नदियां हैं : सुतुद्रि ( =शतद् = सौ गराओं से दौड़ने वाली = सतलज), बिपाश (बिपास = निर्बाध रूप से बहने वाली = व्यास), रुष्णी ( इरावती = रावी), असिवनी ( कृष्ण =चन्द्रभागा =चन्द्ररेखा = चैनाब), सितस्तां -झेलम)। इनके अतिरिक्त और भी कितनी ही नदियां इस देश में प्रवाहित होकर इसे पजाऊ, धन-धान्य आदि से समृद्ध एवं मूल्यवान बनाती हैं : गंगा, यमुना, सरस्वती, सरयू, भा, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, गंडक, वाघमती और न जाने कौन-कौन। नदियों की भांति पर्वतों की संख्या भी कुछ कम नहीं। नगाधिराज हिमालय का उल्लेख ज्या जा चुका है। जैन परम्परा के अनुसार, यह पर्वत आकाशचारी विद्याधरों का क्रीडांगन हा है। जैन मान्यता के अनुसार, जब ऋषभदेव अष्टापद (कैलाश ) पर्वत पर तपस्या में लीन । उनके सम्बन्धी नमि और विनमि को उनके समीप आया जान नागराज धरणेंद्र ने कृपा करके न्हें विद्याएं प्रदान की। आगे चलकर विद्याधरों ने अपने नगरों एवं सभा-भवनों में भगवान षभदेव की प्रतिमा स्थापित कर उन्हें विशेष सम्मानित किया। इस प्रकार का दूसरा महत्वपूर्ण पर्वत है सम्मेद शिखर (समाधि-शिखर),जहां कतिपय करों को छोड़कर शेष ने निर्वाण-पद की प्राप्ति की। इसे मल्ल पर्वत ( संभवतः मल्लों का भुत्व होने के कारण ) भी कहा जाता है। यह पहाड़ी प्रदेश मुंडा, संथाल, ओरांव और मुझ्या |दि आदिवासी जातियों से घिरा हुआ है, इसलिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। रंगबुरु अथवा बड़पहाड़ी मुंडा जाति का देवता माना जाता है। यह देवता जादू विद्या का धनी ।। कहा जाता है कि संथाल महिलाओं ने चालाकी करके उससे इस विद्या को ले लिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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