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धर्म चन्द जैन
lisadaashtra
ने से प्रमाण हो जाएगा तथा धारावाहिक ज्ञान अविसंवादक होने से अज्ञातार्थ का प्रकाशक न ने पर भी प्रमाण हो जाएगा।10 धर्मकीति के एक अन्य टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्त ने अज्ञातार्थ प्रकाशक ज्ञान रूप प्रमाण-लक्षण को पारमार्थिक लक्षण एवं अविसंवादी ज्ञान रूप प्रमाण-लक्षण को सांव्यवहारिक लक्षण बतलाया है।"
प्रमाण के तृतीय लक्षण 'अर्थसानम्प्यमस्य प्रमाणम्' का निरूपण तब हुआ है12 जब प्रमाण का उसके फल से भेद प्रदर्शित किया गया है। बौद्ध दार्शनिकों ने अर्थाधिगति को फल एवं अर्थसारूप्य को प्रमाण बाहयार्थवाद की दृष्टि से निरूपित किया है। विज्ञानवाद के अनुसार योग्यता को प्रमाण एवं स्वसंवित्ति को फल कहा गया है। 3 अर्थसारूप्य को प्रमाण एवं अधिगति को फल बतलाकर बौद्ध दार्शनिकों ने व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव के द्वारा प्रतिनियत अर्थ के ज्ञान की व्यवस्था निरूपित की है।14 जैन दार्शनिकों ने अर्थसारूप्य का निरसन कर ज्ञान में प्रतिनियत अर्थ का व्यवस्थापक होने की स्वतः योग्यता स्वीकार की है।15 उन्होंने ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ की कारणता का भी प्रतिषेध किया है तथा ज्ञानावरण कर्म के प्रय या क्षयोपशम को ज्ञान की उत्पत्ति में प्रमुख कारण स्वीकार किया है।16 । जैन दार्शनिक प्रमाण को ज्ञानात्मक मानने के साथ उसे निश्चयात्मक भी मानते हैं। निश्चयात्मकता अथवा व्यवसायात्मकता ही जैन दार्शनिकों के प्रमाण का प्रमुख लक्षण है जो उसे बौद्धदर्शन में प्रतिपादित प्रमाण-लक्षण से पृथक् करता है। जैनदर्शन में सामान्यरूप से जो प्रमाण-लक्षण प्रतिष्ठित हुआ है उसके अनुसार स्व एवं पर अर्थ का निश्चायक ज्ञान प्रमाण है।7 वही प्रमा का कारण भी है।18 जैनदार्शनिकों ने इसे सम्याज्ञान, तत्त्वज्ञान, स्वपराभासिज्ञान21 आदि शब्दों में भी प्रकट किया है। प्रमाण को उन्होने संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित निरूपित किया है। यह विद्वद् विदित है कि जैनागमों में निरूपित मति, श्रुत आदि पाँच ज्ञानों को ही जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। नन्दीसूत्र, भगवतीसूत्र, षट्खण्डागम, अनुयोगदार सूत्र आदि ग्रन्थों में ज्ञान का विशद एवं विस्तृत विवेचन है। वहाँ पर सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाले ज्ञान को सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्यात्व पूर्वक होने वाले ज्ञान को मिथ्याज्ञान या अज्ञान बतलाया गया है। प्रमाण-मीमांसा के क्षेत्र में जैन दार्शनिकों ने इसे किंचित् संशोधन रूप में प्रस्तुत कर संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान एवं इनसे युक्त ज्ञान को मिथ्याज्ञान या अप्रमाण बतलाया है।
प्रमाण-लक्षण का प्रतिपादन करने में जैन दार्शनिकों पर बौद्ध-लक्षणों का भी प्रभाव रहा है। इसका स्पष्ट निदर्शन स्वयं अकलंक हैं। अकलंक ने अष्टशती में बौद्धों के अज्ञातार्थज्ञापक एवं अविसंवादक ज्ञान रूप लक्षणों का समन्वय करके 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् रूप में जैन प्रमाण-लक्षण निरूपित किया24, तदनुसार अनधिगत अर्थ का ज्ञान कराने के कारण अविसंवादक ज्ञान प्रमाण होता है। जैन न्याय के प्रतिष्ठापक अकलंक द्वारा अनधिगतग्राही ज्ञान को प्रमाण-लक्षण में स्थान देने का परिणाम यह हुआ कि विद्यानन्दि को छोड़कर अन्य दिगम्बर जैन दार्शनिक प्रमाण-लक्षण में अपूर्व, अनधिगत आदि विशेषणों का ग्रहण करते रहे। माणिक्यनन्दी द्वारा प्रदत्त लक्षण For Private & Personal Use Only
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