Book Title: Sramana 1992 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ 22 श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १९८२ भारतीय दार्शनिक परम्परा में बौद्धों का जो संघर्ष न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शन के उद्भट दार्शनिकों के साथ रहा वह अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों के साथ नहीं देखा जाता। जैन एवं बौद्ध ये दोनों दर्शन श्रमण परम्परा के दर्शन थे, अतः इनका संघर्ष वैदिक परम्परा के साथ अधिक था, परस्पर में कम। फिर भी जैन प्रमाण-शास्त्रीय ग्रन्थों का सूक्ष्मावलोकन किया जाय तो आठवीं से बारहवीं शती के ग्रन्थ बौद्ध प्रमाणमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा के खण्डन से अटे पड़े हैं। बौद्धों में भी धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित एवं अर्चट के ग्रन्थों में जैन-मत परीक्षित हुआ है। यहाँ पर हम इन दोनों दर्शनों के प्रमाण विषयक चिन्तन पर विचार करेगें। प्रमाण-लक्षण श्रमण संस्कृति के परिचायक जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शन प्रमाण को ज्ञानात्मक मानते हैं। नैयायिकों को अभीष्ट इन्द्रिय एवं इन्द्रियार्थसन्निकर्ष, सांख्य सम्मत इन्द्रियवृत्ति, मीमांसकाभिमत ज्ञातव्यापार आदि को ये दोनों दर्शन अज्ञानात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं। इनके मत में सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि वह ही हेय एवं उपादेय अर्थ का ज्ञान कराने में समर्थ होता - है तथा वही अर्थप्रापक, प्रवर्तक या संवादक होता है। प्रमाण को ज्ञानात्मक, मानते हुए भी तत्वमीमांसा की भिन्नता के कारण दोनों दर्शनों के प्रमाण-स्वरूप में अनेक मौलिक मतभेद हैं। बौद्धदर्शन में प्रमाण-लक्षण का निरूपण तीन प्रकार से मिलता है। प्रथम प्रकार में अज्ञात अर्थ के ज्ञापक या प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। द्वितीय प्रकार में अविसंवादी ज्ञान को तथा तृतीय प्रकार में अर्थसारूप्य को प्रमाण प्रतिपादित किया गया है। प्रथम प्रकार के प्रमाण-लक्षण का सर्वप्रथम उल्लेख दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय की विशालामलवती टीका में 'अज्ञातार्थ-ज्ञापकमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम् के रूप में मिलता है जिसे धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में 'अज्ञातार्थप्रकाशो वा' कथन के द्वारा पुष्ट किया है। द्वितीय प्रमाण-लक्षण 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् का निरूपण धर्मकीर्ति ने किया है जिसके अनुसार अविसंवादक ज्ञान प्रमाण है। अविसंवादक शब्द का अर्थ यहाँ अभ्रान्त नहीं है, क्योंकि भ्रान्तज्ञान भी कदाचित् अनुमान के रूप में प्रमाण होता है। अविसंवादक शब्द का अर्थ है -- अर्थक्रियास्थिति। अर्थक्रियास्थिति से आशय अर्थप्रापण की योग्यता है। धर्मोत्तर ने न्यायबिन्दुटीका में अविसंवादक शब्द की व्याख्या में प्रकट किया है कि जिस प्रकार लोक में पूर्व प्रदर्शित वस्तु को प्राप्त करा देने वाला पुरुष संवादक कहलाता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने द्वारा प्रदर्शित या अवबोधित अर्थ को प्राप्त कराने के कारण संवादक कहा जाता है। प्राप्त कराने का अर्थ प्रवर्तक होना नहीं है, अपितु प्रवृत्ति के विषय का बोध कराना मात्र है। संक्षेप में कहें तो धर्मकीर्ति के मत में अर्थक्रिया में समर्थवस्तु का प्रदर्शक ज्ञान प्रमाण कहलाता है। अज्ञातार्थज्ञापक एवं अविसंवादी ज्ञानरूप लक्षणों को धर्मकीति के वृत्तिकार मनोरथनन्दी ने परस्पर सापेक्ष प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार प्रमाण अविसंवादी होने के साथ अज्ञात अर्थ का प्रकाशक होता है तथा अज्ञात अर्थ का प्रकाशक होने के साथ अविसंवादक भी होता है। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो पीतशंख ज्ञान विसंवादक होने पर भी अज्ञात अर्थ का प्रकाशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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