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डॉ. धर्म चन्द जैन
अतिसंवादकता को जैन दार्शनिक निर्णयात्मकता के अधीन मानते हैं। निर्णयात्मकता के होने पर ही उनके अनुसार अविसंवादकता संभव है और निर्णयात्मकता के अभाव में अविसंवादकता का भी अभाव रहता है। 4 अकलंक के अनुसार जिस ज्ञान में जितने अंश में अविसंवादकता है, वह ज्ञान उतने अंश में प्रमाण है। तिमिररोगी को होने वाले द्विचन्द्र ज्ञान में चन्द्रांश प्रमाण एवं द्वित्वांश अप्रमाण है।35 __ जैनदार्शनिकों ने बौद्धों के अविसंवादक ज्ञान रूप प्रमाण-लक्षण का जो खण्डन किया है वह बौद्ध तत्वमीमांसा की पारमार्थिक दृष्टि पर आधारित है। बौद्धों की निरंश क्षणिकवादी तत्वमीमांसा में दृश्य एवं प्राप्य क्षण अत्यन्त भिन्न होते हैं, अतः उनमें प्रमाण की अविसंवादकता सिद्ध नहीं की जा सकती। बौद्ध मत में दृष्ट अर्थ की प्राप्ति अविसंवादकता कहलाती है, जबकि प्रत्यक्ष द्वारा दृष्ट अर्थ प्राप्त नहीं होता, कोई अन्य ही अर्थ प्राप्त होता है। वस्तुतः बौद्ध दार्शनिक प्रमाण को सांव्यवहारिक दृष्टि से अविसंवादी मानते हैं जबकि जैन दार्शनिकों का तर्क है कि अविसंवादकता पारमार्थिक दृष्टि से भी होनी चाहिए तभी अविसंवादक ज्ञान को प्रमाण का सामान्य लक्षण प्रतिपादित किया जा सकता है। बौद्धों द्वारा निरूपित प्रत्यक्ष की भांति अनुमान प्रमाण भी जैन दृष्टि में अविसंवादक नहीं है क्योंकि वह भ्रान्त ज्ञान है एवं अवस्तुभूत सामान्यलक्षण को विषय करके स्वलक्षण का अध्यवसाय करता है।
प्रमाण-भेद
जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शन संख्या की दृष्टि से यद्यपि दो ही प्रमाण स्वीकार करते हैं, तथापि उनमें गहरा मतभेद है। बौद्धमत में प्रत्यक्ष एवं अनुमान ये दो प्रमाण हैं जबकि जैनदार्शनिक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष के रूप में प्रमाण-व्य का कथन करके परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क, अनुमान एवं आगम इन पाँच प्रमाणों का समावेश कर लेते हैं। इस प्रकार जैनमत में प्रमाणों की संख्या छह हो जाती है। इनमें प्रत्यक्ष एवं अनुमान तो दोनों सम्प्रदायों को स्वीकृत हैं किन्तु स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क का प्रामाण्य केवल जैन दार्शनिकों को अभीष्ट है, बौद्धों को नहीं। आगम या शब्द का प्रामाण्य बौद्धों ने भी स्वीकार किया है किन्तु वे इसका अपोह द्वारा अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव कर लेते हैं, पृथक् प्रमाण के रूप में स्थान नहीं देते। जैनदार्शनिकों ने शब्द या आगम को अनुमान से पृथक् प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। - बौद्ध दार्शनिक प्रमाणव्यवस्थावादी हैं। उनके यहाँ प्रत्येक प्रमेय के लिए भिन्न प्रमाण का होना आवश्यक माना गया है। इसलिए दिङ्नाग ने प्रमाणसमुच्चय में स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया है कि प्रमाण दो ही है - 1. प्रत्यक्ष एवं 2. अनुमान। कम एवं अधिक नहीं, क्योंकि प्रमेय भी दो ही हैं - स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण । स्वलक्षण प्रमेय प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय है तथा सामान्यलक्षण प्रमेय अनुमान प्रमाण का विषय।36 । जैन दार्शनिकों ने प्रमेय के आधार पर प्रमाणों की संख्या का निर्धारण नहीं किया है क्योंकि जिनमत में प्रमेय एक ही प्रकार का है वे समस्त प्रमेय को सामान्य विशेषात्मक स्वीकार कर उसे
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