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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमाण - विवेचन
- डॉ. धर्म चन्द जैन
नागार्जुन, जयराशिभट्ट एवं श्रीहर्ष को छोड़कर भारतीय दर्शन के फलक पर प्रत्येक दार्शनिक प्रमेयज्ञान के लिए प्रमाण के महत्त्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार करता है । यही कारण है कि न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त-मीमांसा, जैन-बौद्ध आदि समस्त दार्शनिक धाराओं में प्रमाण-शास्त्रीय ग्रन्थों का निर्माण हुआ । बौद्ध एवं जैन दर्शन के विशाल वाड्मय में हुए प्रमाण - शास्त्रीय - चिन्तन का भारतीय दर्शन में विशिष्ट महत्त्व है । बौद्ध त्रिपिटकों में बाद- विद्या के यत्किंचित् प्रयोग के अतिरिक्त प्रमाण चर्चा नगण्य हैं। चीनी स्रोत से उपलब्ध 'उपायहृदय' एवं 'तर्कशास्त्र नामक दिङ्नाग- पूर्व ग्रन्थों में जो प्रमाण-निरूपण मिलता है उसका अधिकांश गौतम के न्यायसूत्र एवं चरक की संहिता से प्रभावित है । वास्तव में दिङ्नाग ही बौद्ध-न्याय के जनक हैं, जिन्होंने 5वीं शती में भारतीय दर्शन में पृथक् प्रमाण - शास्त्रीय ग्रन्थों का प्रवर्तन किया । दिड्नांग के अनन्तर उनके सम्प्रदाय में धर्मकीर्ति (620-690 ई.), धर्मोत्तर (700 ई.), अर्चट ( 8वीं शती पूर्वार्द्ध), प्रज्ञाकर गुप्त ( 670-724 ई.), शान्तरक्षित (705-764 ई.), कमलशील ( 8वीं शती) आदि प्रमुख दार्शनिक हुए जिन्होनें बौद्ध दर्शन में प्रमाण - चिन्तन को आगे बढ़ाया। जैन दर्शन में प्रमाण चिन्तन की पूर्ण व्यवस्थित प्रस्तुति का श्रेय भट्ट अकलंक (720-780 ई.) को दिया जाता है। यद्यपि अकलंक से पूर्व जैनागमों में भी प्रमाण-चर्चा बीज रूप में उपलब्ध है, किन्तु वह बौद्ध ग्रन्थ उपायहृदय एवं तर्कशास्त्र की भांति गौतम के न्यायसूत्र एवं चरक की संहिता से प्रभावित है। सिद्धसेन, मल्लवादी क्षमाश्रमण ( चतुर्थशती), समन्तभद्र (षष्ठशती), हरिभद्र (सप्तमशती) आदि आगमोत्तर दार्शनिकों की रचनाएँ अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठापक अधिक रही हैं। प्रमाण-चिन्तन में सिद्धसेन के न्यायावतार का अवश्य महत्त्वपूर्ण स्थान है जिसे जैनदर्शन की प्रमाणविषयक आद्यकृति कहा जा सकता है । सुमति एवं पात्रस्वामी भी अकलंक के पूर्व हुए हैं किन्तु उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । अकलंक एवं उनके उत्तरवर्ती आचार्यों में विद्यानन्दि (775-840 ई.), अनन्तवीर्य (950-990 ई.), वादिराज ( 1025ई.), अभयदेवसूरि ( 10वीं शती), प्रभाचन्द्र (980-1065 ई.), दिदेवसूरि (1086-1169 ई.), हेमचन्द्र ( 1088-1173 ई.) आदि प्रमुख हैं जिनमें बौद्ध प्रमाण - चिन्तन भी परीक्षित हुआ है। बौद्धों के प्रमाण-परीक्षण के लिए मल्लवादी क्षमाश्रमण चौथी - पाँचवीं शती) का ब्रदशारनयचक्र एवं उस पर सिंहसूरि (सप्तम शती) की टीका भी हत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
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