Book Title: Siriwal Chariu Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain Publisher: Bharatiya GyanpithPage 10
________________ प्रधान सम्पादकीय जिनरत्नकोश (भा. रि. ई. पना १९४४) में श्रीपालचरित्र नामसे तीससे अधिक रचनाओंका निर्देश है। इनमें बहुसंख्या श्वेताम्बर ग्रन्थकारों के द्वारा रचित चरित्रोंकी है। इसके अनुसार प्रथम श्रीपालचरित १३४१ प्राकृत पद्योंमें नागपुरीय तपागच्छके हेमति लकके शिष्य रत्नशेखरने संवत् १४२८में रचा था जो दलपतभाई लालभाई पुस्तकोद्धार फण्डकी ओर से १९२३ ई. में प्रकाशित हुआ था। शेष सब चरित्र इसके पश्चात प्रायः १५वीं-१६वीं शताब्दीमें रचे गये हैं। दिगम्बर परम्परामें संस्कृतमें कई श्रीपालचरित हैं-यथा सकलकीति रचित, ब्रह्म नेमिदत्त रचित, विद्यानन्दि भ. रचित, शुभचन्द्र रचित आदि । प्राकृतमें कोई रचना नहीं मिली। अपभ्रंशमें दो रचनाएँ उपलब्ध हैं-एक नरसेन रचित और दूसरी रइधू रचित । इनमें से प्रथम रचना प्रथम बार हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हो रही है। इतनी रचनाओंसे अनुमान किया जा सकता है कि श्रीपालका चरित कितना लोकप्रिय रहा है । किस तरह एक राजा अपनी जिदके कारण अपनी पुत्रीका विवाह एक कुष्टीके साथ कर देता है। किस तरह राजपुत्री मयणासुन्दरी अपने पिताकी आज्ञाका पालन करते हुए कुष्टी पतिको स्वीकार करती है और मुनिराजके उपदेशसे सिद्धचक्रविधानके द्वारा अपने पतिको उसके सात सौ सुभट सेवकोंके साथ नीरोग करती है और उसके बाद श्रीपालपर जो सुख-दुःखकी घटाएँ आती-जाती हैं वे सब अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद हैं। श्रीपालचरितकी इस आकर्षकता और लोकप्रियताका एक प्रमुख कारण है सिद्धचक्रविधानके द्वारा श्रीपालका आरोग्यलाभ । गृहस्थाश्रममें सुख-दुःख लगा ही रहता है । धार्मिक जनसमाज दुःखकी निवृत्तिके लिए धर्माचरणका भी आश्रय लेता है। सिद्धचक्रविधानके इस महत् फलने धार्मिक जनताको इस ओर आकृष्ट किया और इस तरह मैनासुन्दरीके साथ श्रीपालका चरित लोकप्रिय हो उठा । ब्र. नेमिदत्तने तो श्रीपालचरितको 'सिद्धचक्रार्चनोत्तम' कहा है। श्रतसागर सरिने भी अन्त में लिखा है-सिद्धचक्रवतसे अभ्युदय प्राप्त हुआ। जिनरत्नकोशमें 'सिद्धचक्रमाहात्म्य' नामसे भी कुछ ग्रन्थोंका निर्देश है और वे प्रायः श्रीपालचरित ही हैं । रत्नशेखरके श्रीपालचरितका भी उपनाम सिद्धचक्रमाहात्म्य है। इससे हमारे उक्त कथनकी पुष्टि होती है । ब्रह्मदेवने (११-१२वीं शताब्दी) द्रव्यसंग्रहकी टीकामें पंचपरमेष्ठीका विस्तृत स्वरूप 'सिद्धचक्रादिदेवार्चनविधिरूपमन्त्रवादसम्बन्धि पञ्चनमस्कार ग्रन्थ' में देखनेका निर्देश किया है । यह ग्रन्थ तो अनुपलब्ध है किन्तु इससे यह स्पष्ट होता है कि सिद्धचक्रविधानकी परम्परा प्राचीन है। संस्कृत सिद्धपजाकी स्थापनामें आद्यश्लोक इस प्रकार है। ऊधिोरयुतं सविन्दु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं वर्गापूरितदिग्गताम्बुजदलं तत्सन्धितत्त्वान्वितम् । अन्तःपत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रीङ्कारसंवेष्टितं देवं ध्यायति यः स मक्तिसुभगो वैरीभकण्ठीरवः ।। यह सिद्धचक्रयन्त्रका ही चित्रण है। नरसेनने अपने श्रीपालचरितमें जो इसका चित्रण किया है उसमें चक्रेश्वरी ज्वालामालिनी दस दिग्पाल आदिको भी स्थान दिया गया है। तथा जब धवलसेठ श्रीपालको समुद्र में गिराकर उसकी पत्नी रत्नमंजूषाका शील हरना चाहता है और रत्नमंजूषा सहायताके लिए पुकारती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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