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उस दूतने मृगध्वज राजाके पास आ विनय पूर्वक कहा कि, "हे महाराज ! हमारे स्वामी आपको प्रसन्न करनेके हेतु आपके चरण-कमलोंमे विनंती करते हैं कि, 'किसी धूर्तके छलसे, आप राज्य छोड़कर कहीं चले गये ऐसा समाचार पाकर मैं आपके नगर में अमन चैन रख कर उसकी रक्षाके हेतु आया था, परंतु आपके सरदारों को इस बातका ज्ञान न होनेसे वे सज धज कर शत्रुकी भांति मेरे साथ लडने लगे । परंतु मैने सब तरह से शस्त्र प्रहार सहन करके आपके नगरकी रक्षा की। समय पडने पर जो स्वामीका चित्तसे कार्य नहीं करता वह क्या सेवक हो सकता है ? नहीं । प्रसंग पडने पर पुत्र पिताके लिये, शिष्य गुरूके लिये सेवक स्वामीके लिये और स्त्री पति के लिये अपने प्राणको तृण समान समझते हैं, यह लोकोक्ति ठीक है । "
चन्द्रशेखर के दूतके यह वचन सुनकर मृगध्वज राजाको इन वचनों की सत्यता के विषय में कुछ संशय तो हुआ, परन्तु 'कुछ अंशमे सत्य होंगे' ऐसा सरल स्वभावसे मान लिया । और मिलने के लिये सन्मुख आये हुए चन्द्रशेखर राजाका उचित सत्कार किया । यह मृगध्वज राजाकी कितनी दक्षता, सरलता तथा गंभीरता है ?
तत्पश्चात् लक्ष्मी के समान कमलमाला के साथ विष्णुके समान सुशोभित मृगध्वज राजाने अपूर्व आनन्दोत्सव सहित नगर में प्रवेश किया और जिस भांति शंकरने चन्द्रकलाको मस्तक पर