Book Title: Shatrunjaya Mahatmya
Author(s): Dhaneshwarmuni
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 755
________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra शत्रुंजय 11942 11 www.kobatirth.org निपादपद्म-भृंग्यस्मि सर्व पतितं सहिष्ये || ३८ ॥ इतीरयित्वा निषसाद याव - निःश्वासवात्या धुतपार्श्ववृक्षा ॥ तावत्सरोऽबांबुनृतं पुरस्ता - दस्ताघमालोकयदजगर्ज ॥ ३९ ॥ तचैव पार्श्वतिये घरेफ - ऊंकार संरावितको किलाभ्यां ॥ माकंदकाभ्यां परिपाकपिंगा - प्रलंबि कायाः करगा व्यधायि ॥ ४० ॥ श्रपाययतल मंजलिया - मनोज यत्तत्फलमंगजौ सा ॥ वीक्ष्योत्तमं दानफलं च तादृक् । चकार धर्मे रतिमादरेण ॥ ४१ ॥ इतस्तथा तामनिशय कोपा - नवान्न निर्माण विधौ पुरानं ॥ नष्टिवचेतसि चिंतयंती । श्वश्रूस्तदीया सदनांतरागात् ॥ ४२ ॥ स्पर्शोपलेनाय इवासनानि । स्पर्शेन कल्याणमयानि मुन्योः || दृष्ट्वा न्नपूर्णानि च सर्वतोऽपि । पात्राणि सा प्रीतिमवाप कामं ॥ ४३ ॥ मूढा - त्मना चंडि विकेयं । रे कोपिता कोऽपि न तावकोऽत्र || दोषः परं दानफलं तवौको-योयं न रंकद्विजपुत्रिकासि ॥ ४४ ॥ यदत्र दानं प्रददे तदेत - ददर्शि ते शर्मकरं कलांशं ॥ तस्यास्तु पुण्यानुतवैजवाया । जावी सुरेंशर्च्य नदर्क उच्चैः ॥ ४५ ॥ इत्यंबरोदतमसौ निशम्य | जीतेव निःसृत्य जगाद पुत्रं ॥ पश्यैौकसौंतर्धनधान्यनंगी - मंगीकुरु स्वस्य पुनर्वधूटीं || For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir मादा० ॥ १५१ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840