Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ९-१, १४.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे आभिणिबोहियणाणावरणीयं [१७ अवगृहीतस्यार्थस्य विशेषाकांक्षणमीहा' । जो अवग्गहेण गहिदो अत्थो, तस्स विसेसाकंक्षणमीहा । जधा के पि दट्ठण किमेसो भयो अभव्यो त्ति विसेसपरिक्खा सा ईहा। गेहा संदेहरूवा, विचारबुद्धीदो संदेहविणासुवलंभा। संदेहादो उवरिमा, अवायादो
ओरिमा, विच्चाले पयत्ता विचारबुद्धी ईहा णाम । वितर्कः श्रुतमिति वचनादीहा वियक्करूवत्तादो सुदणाणमिदि चे ण एस दोसो, ओग्गहेण पडिग्गहिदत्थालंबणो वियको ईहा, भिण्णत्थालंबणो वियको सुदणाणमिदि अब्भुवगमादो ।
ईहितस्यार्थस्य संदेहापोहनमवायः । पुव्वं किं भव्यो, किमेसो अभव्यो त्ति जो संदेहबुद्धीए विसईकओ जीवो सो एसो अभव्यो ण होदि, भव्वो चेय; भव्वत्ताविणाभाविसम्मण्णाण सम्मइंसण-चरणाणमुवलंभादो, इदि उप्पण्णपच्चओ अवाओ णाम । करना । अवग्रहसे ग्रहण किये गये अर्थके विशेष जाननेकी आकांक्षा ईहा है। अर्थात् अवग्रहके द्वारा जो पदार्थ ग्रहण किया गया है, उसकी विशेष जिज्ञासाको ईहा कहते हैं । जैसे-किसी पुरुषको देखकर क्या यह भव्य है, अथवा क्या यह अभव्य है, इस प्रकारकी विशेष परीक्षा करनेको ईहाज्ञान कहते हैं । ईहाज्ञान संदेहरूप नहीं है, क्योंकि, ईहात्मक विचार-बुद्धिसे संदेहका विनाश पाया जाता है। संदेहसे उपरितन, अवायज्ञानसे अधस्तन, तथा अन्तरालमें प्रवृत्त होनेवाली विचार-बुद्धिका नाम ईहा है ।
शंका- 'विशेषरूपसे तर्क करना श्रुतज्ञान है' इस शास्त्र वचनके अनुसार ईहा वितर्करूप होनेसे श्रुतज्ञान है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, अवग्रहसे प्रतिगृहीत अर्थके आलम्बन करनेवाले वितर्कको ईहा कहते हैं और भिन्न अर्थका आलम्वन करनेवाला वितर्क श्रुतज्ञान है, ऐसा अर्थ स्वीकार किया गया है।
__ ईहाज्ञानसे जाने गये पदार्थ विषयक संदेहका दूर हो जाना अवाय है। पहले ईहाज्ञानसे ' क्या यह भव्य है, अथवा अभव्य है' इस प्रकार जो संदेहरूप वुद्धिके द्वारा विषय किया गया जीव है, सो यह अभव्य नहीं है. भव्य ही है. पयोंकि उसमें भट अविनाभावी सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र गुण पाये जाते हैं, इस प्रकारसे उत्पन्न हुए विश्वस्त ज्ञानका नाम अवाय है।
१ स. सि. १, १५, त. रा. वा. १, १५, तद्गृहीतार्थसामान्ये यद्विशेषस्य कांक्षणम् । निश्चयाभिमुखं सेहा संशीतेभिन्नलक्षणा ॥ त. श्लो. वा. १, १५, ३. २ प्रतिषु 'एसेसपरिक्खा' इति पाठः।
३ बिसयाणं विसईणं संजोगाणंतरं हवे णियमा। अवगहणाणं गहिदे विसेसकंखा हवे ईहा ॥ गो.जी.३०७ ४ प्रतिषु 'पमत्ता' इति पाठः।
५ त. सू. ९, ४३, ६ विशेषनि नाद्याथात्म्यावगमनमवायः । स. सि. १, १५.; त. रा. वा. १५, ३. तस्यैव निर्णयोऽवायः । त. श्लो० वा. १, १५, ४.
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