Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५-१, १८.] चूालयाए पगडिसमुक्त्तिणे वेदणीय-उत्तरपयडीओ णाणुग्गहढं । संपहि मंदबुद्धिजणाणुग्गहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेव ॥ १८ ॥
सादं सुहं, तं वेदावेदि भुंजावेदि त्ति सादावेदणीयं । असादं दुक्खं, तं वेदावेदि भुंजावेदि त्ति असादावेदणीयं । एत्थ चोदओ भणदि- जदि सुह-दुक्खाई कम्मेहितो होति, तो कम्मेसु विणढेसु सुह-दुक्खवज्जएण जीवेण होदव्वं, सुह-दुक्खणिबंधणकम्माभावा । सुह-दुक्खविवजिओ चेव होदि त्ति चे ण, जीवदव्यस्स णिस्सहावत्तादो अभावप्पसंगा। अह जइ दुक्खमेव कम्मजणियं, तो सादावेदणीयकम्माभावो होज्ज, तस्स फलाभावादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा- जं किं पि दुक्खं णाम तं असादावेदणीयादो होदि, तस्स जीवसरूवत्ताभावा । भावे वा खीणकम्माणं पि दुक्खेण होदव्वं, णाण-दंसणाणमिव कम्मविणासे विणासाभावा । सुहं पुण ण कम्मादो
समाधान-बुद्धिमान् शिष्यों के अनुग्रहके लिये यह सूत्र कहा गया है । अब मन्दबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिये उत्तर सूत्र कहते हैंसातावेदनीय और असातावेदनीय, ये दो ही वेदनीय कर्मकी प्रकृतियां
साता यह नाम सुखका है, उस सुखको जो वेदन कराता है, अर्थात् भोग कराता है, वह सातावेदनीय कर्म है। असाता नाम दुखका है, उसे जो वेदन या अनुभवन कराता है उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं।
शंका-यहांपर शंकाकार कहता है कि यदि सुख और दुख कर्मोंसे होते हैं तो कर्मोंके विनष्ट हो जाने पर जीवको सुख और दुखसे रहित हो जाना चाहिये, क्योंकि उसके सुख और दुखके कारणभूत कर्मोंका अभाव हो गया है । यदि कहा जाय कि कर्मोंके नष्ट हो जाने पर जीव सुखसे और दुखसे रहित ही हो जाता है, सो कह नहीं सकते, क्योंकि, जीवद्रव्यके निःस्वभाव हो जानेसे अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। अथवा, यदि दुखको ही कर्म-जनित माना जाय तो सातावेदनीय कर्भका अभाव प्राप्त होगा, क्योंकि, फिर उसका कोई फल नहीं रहता है ?
समाधान-यहां पर उपर्युक्त आशंका का परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है-दुःख नामकी जो कोई भी वस्तु है वह असातावेदनीय कर्मके उदयसे होती है, क्योंकि, वह जीवका स्वरूप नहीं है । यदि जीवका स्वरूप माना जाय तो क्षीणकर्मा अर्थात् कर्मरहित जीवोंके भी दुःख होना चाहिये, क्योंकि, ज्ञान और दर्शनके समान कर्मके विनाश होनेपर दुखका विनाश नहीं होगा। किन्तु सुख कर्मसे उत्पन्न नहीं होता
१ सदसद्वद्ये ॥ त. सू. ८, ८. यदुदयाद्देवादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेयं प्रशस्तं वेद्यं सदेद्यमिति । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेधमप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ८. महुलित्तखग्गधारालिहणं व दुहाउ वेअणि । ओसन्नं सुरमणुए सायमसायं तु तिरिय-निरयेसु ॥ क. अं. १२-१३.
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