Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३८५] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
(१,९-८, १३. किं सव्वेसु किट्टीअंतरेसु, आहो ण सव्वेसु ! ण सव्वेसु । जदि ण' सव्वेसु, कदमेसु अंतरेसु अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तेदि ? वुच्चदे- वज्झमाणियाणं किट्टीणं जं पढ़मकिट्टीअंतरं तत्थ णत्थि । एवमसंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्ताणि अदिच्छिदूण अपुव्वकिट्टी णिव्यत्तिज्जदि । पुणो एत्तियाणि चेव किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्वत्तिज्जदि।
बज्झमाणयस्स पदेसग्गस्स णिसेयसेडीपरूवणं वत्तइस्सामो- तत्थ जहणियाए किट्टीए बज्झमाणियाए बहुगं, विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण, तदियाए विसेसहीणमणंतभागेण, चउत्थीए विसेसहीणमणतभागेण । एवमणंतरोवणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अपुव्वकिट्टिमपत्तो ति । पुणो अपुव्वाए किट्टीए अणंतगुणं । अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी तत्थ अणतगुणहणिं । तदो पुणो अणंतभागहीणं । एवं सेसासु सव्वासु किट्टीसु।
शंका-क्या सब कृष्टि-अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंको रचता है या सब अन्तरालोंमें नहीं रचता?
समाधान-सब कृष्टि-अन्तरालोंमें उनकी रचना नहीं होती।
शंका-यदि सब कृष्टि-अन्तरालोंमें नहीं रची जाती तो किन अन्तरालोंमें अपूर्व कृष्टियां रची जाती हैं ?
समाधान-बध्यमान कृष्टियोंका जो प्रथम कृष्टि-अन्तर है उसमें उनकी रचना नहीं होती। इस प्रकार असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलमात्र असंख्यात कृष्टिअन्तरालोंको लांघकर प्रथम अपूर्व कृष्टि रची जाती है । पुनः इतने ही कृष्टि-अन्तरालोंका अतिक्रमणकर द्वितीय अपूर्व कृष्टि रची जाती है।
___अब बध्यमान प्रदेशाग्रके निषेकोंकी श्रेणिप्ररूपणाको कहते हैं-उनमें बध्यमान जघन्य कृष्टिमें बहुत, द्वितीय कृष्टिमें अनन्तवें भागसे विशेष हीन, तृतीय कृष्टिमें अनन्तवें भागसे विशेष हीन, और चतुर्थ कृष्टिमें अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इस प्रकार अनन्तर क्रमसे तब तक विशेष हीन प्रदेशान दिया जाता है जब तक अपूर्व कृष्टि प्राप्त नहीं हो जाती। पुनः अपूर्व कृष्टिमें अनन्तगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है। अपूर्व कृष्टिसे जो अनन्तर कृष्टि है, उसमें अनन्तगुणा हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे पुनः अनन्तभाग हीन दिया जाता है। इसी प्रकार शेष सब कृष्टियों में जानना चाहिये।
१ आ-प्रतौ ‘ण सव्वेसु' इति पाठः नास्ति । २ अ-प्रतौ 'स' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' अविच्छिदूण' म-प्रतौ अदिच्छिण' इत्येव पाठः। ४ संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गंतूण । एक्केकबंधकिट्टी किट्टीणं अंतरे होदि ॥ लब्धि. ५३२. ५ दिज्जदि अणंतभागेणूणकम बंधगे य पंतगुणं । तण्णंतरे पंतगुणूणं तत्तो णंतभागणं ॥ लब्धि. ५३३.
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