Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-८, १६. वासपुधसं । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि' । संजलणाणं ठिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तूणा । तिहं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्म संखेजाणि वस्ससहस्साणि । णामा-गोद-वेदणीयाणं डिदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्साणि'।
तदो से काले कोधस्स तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकट्टिदूण पढमद्विदि करेदि । ताधे कोधस्स तदियसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । तासिं चेव असंखेज्जा भागा बज्झंति । जो विदियकिट्टि वेदयमाणस्स विधी सो चेव विधी तदियकिट्टि वेदयमाणस्स वि कादव्यो । तदियकिट्टि वेदयमाणस जा पढमट्टिदी तिस्से पढमद्विदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए कोधस्स चरिमसमयवेदगो जहण्णहिदीए उदीरगो च। ताधे ट्ठिदिबंधो संजलणाणं दो मासा पडिवुण्णा । संतकम्मं चत्तारि वस्साणि पुण्णाणि ।
से काले माणस्स पढमकिट्ठिमोकट्टिदूण पढमट्ठिदि करेदि । जा एत्थ सव्वमाण
घातिया कर्मीका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वमात्र होता है। शेष कौंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। संज्वलनचतुष्कका स्थितिसत्व पांच वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार मासप्रमाण होता है। तीन घातिया कौंका स्थितिसत्व संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका स्थितिसत्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है।
उसके अनन्तर कालमें क्रोधकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण कर प्रथमस्थितिको करता है। उस समयमें क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंके असंख्यात बहुभाग उदीर्ण हो जाते हैं । और उन्हींके असंख्यात भाग बंधते हैं। द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके जो विधि कही गई है, वही विधि तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके भी कहना चाहिये। तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमें एक समय अधिक आवलिमात्रके शेष रहनेपर क्रोधका अन्तिम समय वेदक और जघन्य स्थितिका उदीरक भी होता है । उस समयमें संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध परिपूर्ण दो मास और स्थितिसत्व पूर्ण चार वर्षप्रमाण होता है।
अनन्तर समयमें मानकी प्रथम कृष्टिका अपकर्षणकर प्रथमस्थितिको करता
१ घादितियाणं बंधो वासपुधत्तं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेणं ॥ लब्धि. ५५२.
२ घादितियाणं सत्तं संखसहस्साणि होति वस्साणं । तिण्हं पि अघादीणं वस्साणि असंखमेत्ताणि ॥ लब्धि. ५५३.
३ से काले कोहस्स य तदियादो संगहादु पढमठिदी। अंते संजलणाणं बंधं सत्तं दुमास चउवस्सा ॥ लधि. ५५४.
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