Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 611
________________ विशेष टिप्पण (१७) पृ. ७२ पं. ४ में हुंडसंस्थानके ३१ भेदोंका संकेत किया गया है । हमने विशेषार्थमें समझाया है कि ये इकतीस भेद किस प्रकार हो सकते हैं। पर अन्यत्र कहीं ऐसे भेदोंका उल्लेख हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ । पृ. ८१. यहां सूत्र ५ में जो ' एक्कम्हि चेव हाां' पद आये हैं उनमें एक्कम्हि रूप सप्तम्यन्त पदकी टीकाकारने इस प्रकार उपपत्ति बैठाइ ह कि 'एक्कम्हि ' से ' एक ही अवस्थाविशेषमें ' ऐसा अर्थ लेना चाहिये । यही उपपत्ति उन्होंने सूत्र ९ में ग्रहण की है जहां उन्होंने एक्कम्हि का अर्थ ' भावे ' ग्रहण किया है। किन्तु आगे सूत्र १५ में उन्होंने एक्कम्हि को सप्तम्यर्थक न मानकर प्रथमाके अर्थमें ग्रहण किया है और उसे ' हाणं' का विशेषण माना है, तथा उसके लिये प्रमाण भी यह दिया है कि " प्राकृतमें प्रथमाके अर्थमें षष्टी व सप्तमी विभक्ति की प्रवृत्ति संमव है।" यहांसे आगे सूत्र १८ में उन्होंने उसे इसी अर्थमें ग्रहण किया है । पर सूत्र २१ में एक और वेढंगी परिस्थिति उत्पन्न हुई है, क्योंकि यहां 'एदासिं बावीसाए पयडीणं एक्कम्हि चेव ट्ठाणं' ऐसा विलक्षण प्रयोग आया है। यहां उन्होंने एक्कम्हि को 'बावीसाए' का विशेषण बनाया है जिसके लिये उन्हें आधार और आधेयमें एकत्वकी कल्पना करनी पड़ी है। फिर आगे सूत्र २४ में ' एक्कम्हि ' को 'एकवीसाए' का विशेषण लेने या उसके द्वारा ' इक्कीसप्रकृतिबन्धके योग्य परिणाममें ' ऐसा अर्थ लेने का विकल्प दिया गया है। आगे सूत्र २७, ३०, ३३, ३६, ३९, ४२ आदिमें भी चूलिका भरमें ‘एक्कम्हि ' आया है पर वहां उसका कोई स्पष्टीकरण नहीं किया, बल्कि प्रसंग टाल दिया गया है। गत्यागति चूलिकामें १३२, १३५ आदि सूत्रोंमें यह प्रयोग फिर दिखाई देता है। सूत्र १३५ की टीकामें धवलाकारने यहां इसका दो प्रकारसे समाधान किया है कि या तो 'देवगदि ' को अव्यय रूपसे छहों कारकोंके योग्य मानकर ' एक्कम्हि' का उसके साथ समानाधिकरणत्व बैठालो, या फिर 'एकं ' और 'हि' को अलग अलग पद मानकर 'एक' को द्वितीयावाची 'देवगदिं' के साथ लो। विचार करनेसे ज्ञात होता है कि धवलाकारका अन्तिम समाधान ही सबसे अधिक उपयुक्त है और वह सर्वत्र ठीक घटित हो सकता है। स्थानसमुत्कीर्तन चूलिकामें 'एक्कं' 'ट्ठाणं' का विशेषण बन जाता है और गत्यागति चूलिकामें वह 'गदिं' का विशेषण लिया जा सकता है। इसके समर्थनमें गत्यागति चूलिकाके सूत्र ९४ व ११६ पेश किये जा सकते हैं जहां 'हि' का प्रयोग नहीं हुआ और 'एक्कं तिरिक्खगदिं ' 'एक्कं चेव तिरिक्खगदि ' ऐसे प्रयोग पाये जाते हैं। प्रतियोंमें हमें कहीं 'एकहि' और कहीं 'एक्कम्हि' लिखा दिखाई दिया, इससे भी यही अनुमान होता है कि 'हि' पद अलग ही रहा है, किन्तु उसकी पूर्व पदसे सन्धि हो जानेके कारण टीकाकारको उसमें भ्रम हो गया, जिससे उन्हें बहुत खींचातानी कर अर्थसंगति बैठानी पड़ी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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